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Explainer: आसिम मुनीर की जिन अयूब खान से हो रही तुलना, उनके एक तुगलकी फैसले ने कैसे तुड़वाया था पाक

पांच सितारा जनरल कहे जाने वाले आसिम मुनीर अब बेहद ताकतवर हो गए हैं और यहां तक कहा जा रहा है कि वह दुनिया में लोकतंत्र की लाज रखने के लिए सत्ता नहीं संभाल रहे वरना पीछे से वही सब कुछ मैनेज कर रहे हैं। फील्ड मार्शल के पद से लेकर सत्ता में सुपरपावर बनने तक मुनीर की अयूब खान से तुलना की जा रही है।

Surya Prakash लाइव हिन्दुस्तान, इस्लामाबादFri, 23 May 2025 04:04 PM
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Explainer: आसिम मुनीर की जिन अयूब खान से हो रही तुलना, उनके एक तुगलकी फैसले ने कैसे तुड़वाया था पाक

पाकिस्तान के आर्मी चीफ आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल का तमगा मिल गया है। इसके साथ ही उनकी तुलना अब पूर्व सैन्य तानाशाह अयूब खान से होने लगी है। वह अयूब खान के बाद पाकिस्तान के दूसरे सेना प्रमुख हैं, जिन्हें 78 सालों के इतिहास में फील्ड मार्शल का पद मिला है। पांच सितारा जनरल कहे जाने वाले आसिम मुनीर अब बेहद ताकतवर हो गए हैं और यहां तक कहा जा रहा है कि वह दुनिया में लोकतंत्र की लाज रखने के लिए सत्ता नहीं संभाल रहे वरना पीछे से वही सब कुछ मैनेज कर रहे हैं। इस तरह फील्ड मार्शल के पद से लेकर सत्ता में सुपरपावर बनने तक आसिम मुनीर की रह-रहकर अयूब खान से तुलना की जा रही है।

पाकिस्तान के इतिहास में ज्यादातर समय शासन सैन्य तानाशाहों का ही रहा है। कभी टूटी-फूटी चुनी हुई सरकारें भी आईं तो उन्हें पीछे से सेना ने ही हैंडल किया है। फिर अयूब खान तो 1958 से 1969 तक कुल साल तक एकछत्र शासन करते रहे। वह पाकिस्तान के अंदर एक ताकतवर शासक तो बने, लेकिन देश को कमजोर ही करते गए। यहां तक कि उनके फैसलों ने ही बांग्लादेश के निर्माण की नींव रखी और अंत में 1971 में एक अलग मुल्क ही अस्तित्व में आया। इसकी एक बड़ी वजह थी, पाकिस्तान की राजधानी को कराची से हटाकर इस्लामाबाद लाना।

कैसे इस्लामाबाद बनने से सिंध से पूर्वी पाक तक फैला गुस्सा

लाहौर, कराची, पेशावर और रावलपिंडी जैसे शहर पाकिस्तान में परंपरागत रहे हैं, लेकिन इस्लामाबाद को तो नक्शे पर तय करके बनाया गया। इसका एक ही मकसद था कि कराची से हटाकर राजधानी पंजाब में लेकर आना। इससे पाकिस्तान में गुस्सा पनपा और वैसे ही भौगोलिक रूप से दूर रहे पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने तो इसे अपने खिलाफ ही माना। कहा जाता है कि वे कराची को राजधानी के रूप में स्वीकार कर रहे थे क्योंकि वह एक बहुसंस्कृति वाला शहर था। कभी भारत से गए मोहाजिर वहां थे तो वहीं सिंधी, पंजाबी, पठान, बंगाली समेत सभी समुदाय के लोग वहां रहते थे। इससे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को वहां से दिक्कत नहीं थी।

कैसे अगले 4 साल के अंदर ही बन गया नया मुल्क

फिर जब अयूब खान ने राजधानी को बदलकर कराची लाने का फैसला लिया तो असंतोष फैल गया। पहले राजधानी को कराची से हटाया गया और फिर अंतरिम तौर पर रावलपिंडी में कैपिटल रही। फिर अंत में 14 अगस्त, 1967 को इस्लामाबाद में शिफ्ट किया। यह पाकिस्तान के निर्माण के 20वें साल में हुआ था। लेकिन इससे भड़के पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने अगले 4 साल के अंदर ही नया देश ही बना लिया। पाकिस्तानी अखबार द ट्रिब्यून के ही एक लेख के अनुसार तीन कारणों से अयूब खान का यह फैसला तुगलकी फरमान ही साबित हुआ। पहला, आज अरबों डॉलर खर्च करने के बाद भी इस्लामाबाद एक अच्छा शहर नहीं बन सका है।

क्यों गैर-पंजाबी कभी इस्लामाबाद से खुद को नहीं जोड़ सके

दूसरा, राजधानी बदलने से पूर्वी पाकिस्तान, सिंध औऱ बलूचिस्तान के लोगों को दूरी का आभास हुआ। उन्हें लगा कि इससे सेना और नौकरशाही को हावी होने का मौका मिला है। इसके अलावा हमसे चीजें दूर हो रही हैं। पंजाब के सत्ता में हावी होने का नैरेटिव भी यहीं से शुरू हुआ। इस तरह इस्लामाबाद दूसरे प्रांतों के संसाधनों पर खड़े एक शहर के तौर पर पेश हुआ। तीसरा यह कि इस्लामाबाद को लेकर आरोप लगते रहे हैं कि वहां गैर-पंजाबी लोगों को महत्व नहीं मिलता। इसके कारण मोहाजिरों में तो भारी गुस्सा दिखता है। बंगाली तो बांग्लादेश देश लेकर अलग हो गए, लेकिन मोहाजिर आज भी अपने हकों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब सवाल है कि कराची से राजधानी क्यों शिफ्ट की गई?

भारत से गए मोहाजिरों से नफरत में बनी नई राजधानी?

इसका कारण भी मोहाजिरों के प्रभुत्व को खत्म करने की कोशिश बताई जाती है। दरअसल विभाजन के बाद, उर्दू बोलने वाले मुसलमान, जिन्हें ‘मोहाजिर’, ‘पनाहगुज़ीर’ या ‘हिंदुस्तानी’ कहा जाने लगा, सिंध के शहरी इलाकों, खासकर कराची और हैदराबाद में बस गए। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान आने वाले 73% नए प्रवासी पंजाबी थे, जिन्होंने पंजाब में बसना पसंद किया। कुछ उर्दू बोलने वाले भी पंजाब में बस गए और पंजाबी संस्कृति में घुल-मिल गए। हालांकि, सिंध में स्थिति अलग थी, क्योंकि यहां मोहाजिरों ने कराची में अपनी अलग पहचान बना ली। विभाजन से पहले, कराची गैर-मुसलमानों का गढ़ था, लेकिन 1947 के बाद जब वे भारत चले गए, तो मोहाजिरों पर सांस्कृतिक तौर पर घुलने-मिलने का किसी तरह का दबाव नहीं था। इसके विपरीत, कराची और हैदराबाद में वे स्वतंत्र रूप से अपनी भाषा और संस्कृति का पालन कर सकते थे।

एक फैसले से कैसे कमजोर होते गए मोहाजिर, आज भी चुका रहे कीमत

राजनीतिक रूप से, मोहाजिरों को नई पाकिस्तानी सरकार में अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व मिला। वे एक उन्नत शहरी पूंजीवादी संस्कृति से आए थे, जो उन्होंने भारत के कस्बों और शहरों से अपने साथ लाई थी। उनके पास एक समृद्ध व्यापारिक वर्ग था, साथ ही एक शिक्षित और प्रशासनिक सेवा वर्ग भी था। इसके अलावा, उनके पास एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित श्रमिक वर्ग भी था। लियाकत अली खान, जो खुद एक मोहाजिर थे, पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने। पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में उर्दू को अपनाना और कराची को देश की राजधानी बनाना इस बात का संकेत था कि मोहाजिर अब पाकिस्तान की सत्ता संरचना में पंजाबी समुदाय के साथ जूनियर पार्टनर बन गए थे।

क्यों इस्लामाबाद का बनना कहा गया मोहाजिरों का दूसरा पलायन

कराची पाकिस्तान का वित्तीय और औद्योगिक केंद्र बन गया और इसमें मोहाजिरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। मोहाजिर समुदाय की राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति में गिरावट तब शुरू हुई जब अयूब खान, जो एक पठान थे, सत्ता में आए। उनके सैन्य तख्तापलट के बाद, उन्होंने पाकिस्तान की राजधानी को कराची से इस्लामाबाद स्थानांतरित कर दिया। इस फैसले से मोहाजिरों में गहरा असंतोष फैल गया। इसके अलावा, नौकरशाही में किए गए बदलावों ने भी मोहाजिरों को नुकसान पहुंचाया। सिद्दीकी के अनुसार, कई मोहाजिर नौकरशाहों को इस्लामाबाद स्थानांतरित होना पड़ा, जहां की ठंडी जलवायु कराची की समशीतोष्ण (temperate) जलवायु से बहुत अलग थी। इसे उन्होंने 1947 के बाद मोहाजिरों का दूसरा पलायन कहा।

अयूब खान की तो मोहम्मद अली जिन्ना की बहन से भी ठनी थी

1964 के राष्ट्रपति चुनाव में मोहाजिरों ने कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना का समर्थन किया और अयूब खान के खिलाफ सक्रिय रूप से चुनाव प्रचार किया। चुनाव के दौरान, मोहाजिर समुदाय ने बड़े पैमाने पर अयूब खान के खिलाफ प्रदर्शन किए। अयूब खान की चुनावी जीत के बाद, कराची में पठानों के नेतृत्व में एक बड़ा विजय जुलूस निकाला गया, जिसके दौरान दंगे भड़क उठे। यह कराची के इतिहास में पहली बार था जब मोहाजिरों को किसी अन्य जातीय समुदाय के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष का सामना करना पड़ा। यह घटना कराची की भविष्य की जातीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

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