थियेटर और नाट्य मंचन वैकल्पिक विषय बनें
जब कोई बच्चा मंच पर श्रीराम बनता है, तो केवल किरदार नहीं निभाता। वह आदर्शों की जीवंत मूर्ति बन जाता है। अलीगढ़ की सरस्वती विद्या मंदिर सीनियर सेकेंडरी स्कूल, केशव नगर में चल रही रंग पाठशाला किसी साधारण नाट्य कार्यशाला की तरह नहीं। एक आध्यात्मिक यज्ञ की तरह है।
जहां बच्चे अभिनय के माध्यम से स्वयं को गढ़ रहे हैं और मंच के माध्यम से भारतीय संस्कृति से जुड़ते जा रहे हैं। यहां संवादों में मर्यादा है, मुद्राओं में अनुशासन और हर पात्र की आंखों में बसते हैं श्रीराम।
भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ (संस्कृति विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार) के सहयोग से संस्कार भारती, अलीगढ़ (ब्रज प्रांत) द्वारा 17 मई से शुरू की गई 10 दिवसीय रंग पाठशाला बच्चों के व्यक्तित्व विकास और संस्कृति बोध का एक अनूठा प्रयास है। इस पाठशाला में स्कूलों के छात्र-छात्राएं हिस्सा ले रहे हैं। जिन्हें अभिनय के साथ-साथ भारतीय नाट्य शास्त्र की विविध विधाओं से परिचित कराया जा रहा है। यह कार्यशाला केवल अभिनय सिखाने का माध्यम नहीं है। यह उन मूल्यों और आदर्शों को सिखाने का प्रयास है जो आज के तकनीकी दौर में कहीं खोते जा रहे हैं। भारतेंदु नाट्य अकादमी के सदस्य आलोक शर्मा बताते हैं कि इस वर्ष रंग पाठशाला का विषय ‘रामलीला’ रखा गया है। इसका उद्देश्य है बच्चों के जीवन में मर्यादा, सेवा, त्याग और कर्तव्यबोध जैसे गुणों का समावेश है।
हिन्दुस्तान समाचार पत्र की टीम ने बुधवार को खैर रोड गोंडा मोड स्थित सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल में रंग पाठशाला में छात्रों व प्रशिक्षण देने वालों से संवाद किया। उन्होंने बताया कि हर दिन की शुरुआत योगाभ्यास से होती है। जिससे बच्चों का तन और मन तैयार होता है, अभिनय की साधना के लिए। इसके बाद कुछ शारीरिक गतिविधियां कराई जाती हैं जिससे उनके शरीर की मुद्रा, गति और नियंत्रण में संतुलन आ सके। नाट्यकला के लिए आवश्यक आंगिक अभिनय (शारीरिक भाषा), वाचिक अभिनय (संवाद और स्वर), आहार्य अभिनय (वेशभूषा, साज-सज्जा) और सात्विक अभिनय (भावनात्मक अभिव्यक्ति) को गहराई से समझाया जा रहा है। वरिष्ठ रंग कर्मियों ने बताया कि रामलीला केवल अभिनय नहीं, एक जीवनदर्शन है। जब बच्चा केवट का संवाद बोलता है, तो उसके भीतर सेवा का भाव जगता है। जब वह राम बनता है, तो उसे त्याग और मर्यादा का अर्थ समझ आता है। यही वह बिंदु है जहां रंग पाठशाला केवल मंच की कला नहीं, आत्मा की साधना बन जाती है।
नाट्य दृश्य, संवाद और पात्र निर्माण
पाठशाला में केवट संवाद, श्रीराम जन्म, राम-भरत मिलाप जैसे प्रसंगों पर विशेष फोकस किया गया है। छात्रों का चयन कर पात्रों का निर्माण कराया गया है। इन्हें संवाद लेखन, उच्चारण, लय, भाव और मंचीय प्रस्तुति की बारीकियां सिखाई जा रही हैं। हर बच्चा अपने संवाद खुद लिख रहा है। उन्हें याद कर मंच पर प्रस्तुत कर रहा है। इससे उनमें आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और रचनात्मकता का विकास हो रहा है।
शिक्षा में थियेटर की आवश्यकता
कार्यशाला में शामिल शिक्षकों और रंगकर्मियों ने मांग की कि बच्चों के पाठ्यक्रम में थियेटर और नाट्य मंचन को वैकल्पिक विषय की तरह शामिल किया जाए। जैसे कंप्यूटर, संगीत या फिजिकल एजुकेशन के लिए स्थान होता है। वैसे ही रंगमंच को भी उचित स्थान मिले। इससे बच्चों को भारतीय परंपरा, इतिहास और संस्कृति को गहराई से समझने का मौका मिलेगा और साथ ही अभिनय के क्षेत्र में करियर की संभावनाएं भी विकसित होंगी।
स्कूलों में नाट्यकला की कार्यशालाएं हो
संस्था के पदाधिकारियों ने एक और गंभीर मुद्दा उठाया कि अलीगढ़ और आसपास के जिलों में नाट्य अभ्यास के लिए कोई स्थायी रंगमंच उपलब्ध नहीं है। बच्चों को मंच पर लाने और नाट्यकला को जीवित रखने के लिए एक ऐसे सांस्कृतिक स्थल की आवश्यकता है। जहां नियमित अभ्यास हो सके, छोटी-बड़ी प्रस्तुतियां दी जा सकें और कलाकारों को सृजनात्मक वातावरण मिल सके। इसी के साथ यह मांग भी रखी गई कि सरकारी और निजी स्कूलों में सप्ताह में कम से कम एक दिन नाट्यकला पर आधारित कार्यशालाएं कराई जाएं। क्योंकि यह कला न केवल अभिव्यक्ति देती है, बल्कि बच्चे के आत्मबल, टीमवर्क, अनुशासन और नेतृत्व क्षमता को भी गढ़ती है।
रंग मंच की राह में रुकावटें, एक मंच की मांग
अलीगढ़ जैसे शहर में जहां हज़ारों छात्र पढ़ते हैं और अभिनय में रुचि रखते हैं। वहां कोई स्थायी रंगमंच या अभ्यास स्थल नहीं है। हर कार्यक्रम के लिए अस्थायी मंच बनाना पड़ता है या किसी स्कूल में स्थान मांगना पड़ता है। आयोजकों का कहना है कि अगर प्रशासन एक ओपन थियेटर या सांस्कृतिक केंद्र बना दे तो शहर की रचनात्मक ऊर्जा को दिशा मिल सकती है। यह मांग पिछले कई वर्षों से लंबित है।
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