बोले कटिहार : छठ के सूप बनाने वालों को अनुदान, सस्ते लोन और बाजार की दरकार
परंपरागत बांस के कारीगरों की स्थिति खराब हो रही है। सिंगल टोला और कुरसेला के सौ से अधिक परिवार पीढ़ियों से सूप-दउरा, झाड़ू और चंगेरा बनाकर जीवन यापन कर रहे हैं। बढ़ती लागत और घटती मांग के कारण ये अपने...
परंपरागत हुनर पर बाजार और समय की मार दिखने लगी है। शहर के सिंगल टोला और कुरसेला एनएच-31 किनारे बसे सौ से अधिक परिवार सूप-दउरा, झाड़ू, चंगेरा और टोकरी बनाकर पीढ़ियों से अपना जीवन चला रहे हैं। लेकिन बढ़ती लागत, घटती मांग और बाजार की कमी ने इनके पुश्तैनी पेशे को संकट में डाल दिया है। सूप-दउरा तैयार करने वाले कारीगरों का कहना है कि बांस और अन्य कच्चे माल की कीमतें तीन गुना तक बढ़ गईं, लेकिन मेहनत का उचित दाम नहीं मिल रहा। त्योहारों पर जो रौनक इनके बनाए सामान से होती थी, अब ऑनलाइन बाजार और प्लास्टिक उत्पादों ने उसकी जगह ले ली है। इन परिवारों ने सरकार से अनुदान, सस्ते लोन और बाजार उपलब्ध कराने की मांग की ताकि उनका हुनर और रोजगार दोनों बच सके।
02 सौ 31 पंचायतों में बांस से सामग्री बनाने वाले कारीगर हैं परेशान
10 हजार महिला एवं पुरुष कारीगर को बाजार एवं लोन की है दरकार
05 सौ परिवारों को अभी तक नहीं किया गया है पुनर्वासित
इनके बनाए सूप, दउरा और चंगेरा के बिना शादी-ब्याह और छठ अधूरे हैं। बांस से तरह-तरह के सामान बनाने वालों के पेशे पर खतरा मंडरा रहा है। ऑनलाइन बाजार, प्लास्टिक के सामान ने पारंपरिक बांस के सामान की मांग कम कर दी है। अब ये बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। शहर के सिंगल टोला और कुरसेला स्थित एनएच-31 किनारे बसे सौ से अधिक परिवार पीढ़ियों से सूप-दउरा, झाड़ू और चंगेरा बनाकर गुजर-बसर कर रहे हैं। बदलते समय और महंगाई ने इनके पुश्तैनी पेशे को हाशिये पर ला दिया है। बांस, कील, तार और रंग जैसे कच्चे माल की कीमतें आसमान छू रही हैं। मेहनत वही है, लेकिन दाम नाममात्र मिल रहा। मुकेश मल्लिक कहते हैं कि छठ का मौसम ही हमारा सहारा होता है। लेकिन अब तो त्योहार में भी खरीदार नहीं दिखते। लोग स्टील, प्लास्टिक और ऑनलाइन खरीदारी की ओर भाग रहे हैं। अनिता बताती है कि हमारे बच्चे पढ़ना चाहते हैं, लेकिन दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल है। सरकारी योजनाओं में सिर्फ राशन कार्ड तक सीमित रह गए हैं। न कोई लोन, न बाजार मिलता है।
झाड़ू बनाने वाली पूजा बताती हैं कि अब झाड़ू की लागत ही 30 रुपये से ऊपर आती है, लेकिन बाजार में बिकता है मात्र 40-60 रुपये में। रोज 3-4 झाड़ू ही बिकते हैं, ऐसे में परिवार पालना नामुमकिन-सा हो गया है। इन कारीगरों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि सरकार ‘लोकल टू ग्लोबल का नारा देती है, लेकिन जमीनी स्तर पर न कोई बाजार उपलब्ध है, न कोई योजना। उनका कहना है कि अगर बांस के उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो, सरल लोन मिले और बाजार मुहैया कराया जाए, तो यह पुश्तैनी पेशा फिर से सम्मान पा सकता है। हमारे बनाए सामान को ऑनलाइन बेचने की भी व्यवस्था की जा सकती है। जिलों में समय-समय पर जो सरकारी बाजार लगते हैं, उसमें हमारे बनाए सामान को बेचने की व्यवस्था हो। कारीगरों ने बताया कि हम सिर्फ अपने हुनर से दो वक्त की रोटी चाहते हैं, हम अपने बच्चों को भूखा नहीं देखना चाहते। सरकार हमारी पुकार सुने।
शिकायत :
1. बांस, कील, तार और रंग की कीमतें बेतहाशा बढ़ गई हैं, लेकिन मेहनत का उचित दाम नहीं मिल रहा।
2. अब तक सिर्फ राशन कार्ड ही मिला, कोई आर्थिक सहायता, लोन या बाजार सुविधा नहीं दी गई।
3. ऑनलाइन और बड़े मॉल सस्ते दाम पर मशीन से बने सामान बेच रहे हैं, जिससे कारीगरों के उत्पाद बिक नहीं पा रहे।
4. युवा पीढ़ी बेरोजगारी और आर्थिक तंगी से तंग आकर यह काम छोड़ रही है।
5. सरकार बार-बार लोकल प्रोडक्ट्स को प्रमोट करने की बात करती है, लेकिन हमारे जैसे कारीगरों तक इसका कोई फायदा नहीं पहुंचता।
सुझाव :
1. बैंकों से बिना जटिल प्रक्रिया के कम ब्याज दर पर लोन उपलब्ध कराया जाए, ताकि कारीगर कच्चा माल खरीद सकें।
2. सूप-दउरा जैसे हस्तशिल्प उत्पादों के लिए स्थानीय स्तर पर हाट, मेले और ई-मार्केटिंग प्लेटफॉर्म की सुविधा दी जाए।
3. सरकारी कार्यक्रमों और स्कूल-कॉलेज में बांस से बने उत्पादों की अनिवार्य खरीद सुनिश्चित हो।
4. युवा पीढ़ी को इस कला में निपुण बनाने के लिए तकनीकी और डिज़ाइन आधारित प्रशिक्षण दिया जाए।
5. ‘वोकल फॉर लोकल मुहिम के तहत इनके उत्पादों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ा जाए।
इनकी भी सुनिए
हम बचपन से सूप-दउरा बनाते आ रहे हैं। अब महंगाई इतनी बढ़ गई है कि मेहनत के बावजूद घर चलाना मुश्किल हो गया। त्योहार में भी पहले जैसी बिक्री नहीं होती। सरकार अगर बाजार और लोन की सुविधा दे तो हम भी सम्मान से जी सकते हैं।
- ललिता देवी
हमारी रोजी-रोटी बांस के सामान पर टिकी है। अब मांग कम हो गई और कच्चा माल महंगा हो गया है। मेहनत का सही दाम नहीं मिलता। अगर सरकार उचित योजना लाए, तो हम फिर से अपने हुनर से जीवन को संवार सकते हैं।
- बेबी देवी
बांस की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं, लेकिन ग्राहक अब सस्ते प्लास्टिक और मशीन से बने सामान खरीदते हैं। हमारा पुश्तैनी पेशा संकट में है। हमें बाजार, लोन और सरकारी सहयोग की बहुत ज़रूरत है ताकि परिवार का गुजारा ठीक से हो सके।
- अनीता देवी
हम दिन-रात मेहनत करके सूप, दउरा और झाड़ू बनाते हैं। लेकिन बाजार में खरीदार नहीं मिलते। सरकार अगर बिक्री की सुविधा और लोन दे तो हमारा हुनर जिंदा रह सकता है। बच्चों को पढ़ाने के लिए भी सहारा चाहिए।
- कर्मीला देवी
बांस के सामान अब त्योहारों में भी नहीं बिकते। प्लास्टिक और मॉल के सस्ते उत्पादों ने हमारी रोजी-रोटी छीन ली है। सरकार से अपील है कि स्थानीय बाजार और सरकारी खरीद में हमारे सामानों को प्राथमिकता दी जाए।
- पूजा देवी
हमारे पुरखे इस पेशे से जुड़े थे, अब हमारा परिवार भी यही काम करता है। लेकिन अब लागत निकालना भी मुश्किल हो गया है। सरकारी योजना और लोन की सख्त ज़रूरत है ताकि यह काम आगे भी चलता रहे।
- मुन्ना तुरी
हम लोग बांस का सामान बनाकर गुजारा करते हैं। आज के समय में हमारे सामान की मांग खत्म हो रही है। लोन और बाजार मिले तो हम अपना हुनर बचा सकते हैं। सरकार से यही उम्मीद है कि हमारी परेशानी सुने।
- पवन कुमार
बांस के सामान बनाने में बहुत मेहनत लगती है लेकिन सही दाम नहीं मिलता। ग्राहक भी कम हो गए हैं। सरकार अगर लोन और एक स्थायी बाजार दे, तो हम भी आत्मनिर्भर बन सकते हैं। हमें सहयोग की दरकार है।
- दिलीप तुरी
हमारे गांव का हर परिवार सूप-दउरा बनाता है। अब यह काम ठप पड़ता जा रहा है। बांस महंगा हो गया है, लेकिन दाम नहीं बढ़ा। सरकार यदि बाजार और सहायता दे तो हमारा पेशा जिंदा रह सकता है।
- अशोक तुरी
बांस से सूप-दउरा बनाना ही हमारी रोजी-रोटी है। महंगाई और ऑनलाइन बाजार ने हमें बेरोजगार बना दिया है। सरकार से मांग है कि कारीगरों के लिए लोन और विपणन की सुविधा सुनिश्चित की जाए।
- मिट्ठू तुरी
हम पुश्तैनी पेशे से सूप, दउरा और झाड़ू बनाते हैं। महंगाई और घटती मांग से जीवन चलाना मुश्किल हो गया है। सरकार से मांग है कि हमारा हुनर न बुझे, इसके लिए योजनाएं लाई जाएं।
- सिलधर तुरी
हुनर है पर सहारा नहीं। बांस के सामान बनाकर जीवन चलता है लेकिन लागत बढ़ गई और दाम घट गए। सरकार अगर बाजार उपलब्ध कराए और लोन की सुविधा दे तो हालात सुधर सकते हैं।
- मुकेश मल्लिक
हम दिन-रात मेहनत करते हैं लेकिन बाजार में हमारे सामान की मांग नहीं रह गई है। सरकार से गुजारिश है कि हमारे लिए लोन और बिक्री की सरकारी व्यवस्था हो ताकि हम आत्मनिर्भर बन सकें।
- हरिहर तुरी
हमारे परिवार का जीवन इस पेशे पर टिका है। लेकिन बढ़ती महंगाई और सस्ते प्लास्टिक प्रोडक्ट्स ने बाजार छीन लिया। सरकार अगर मदद करे, लोन दे और बाजार सुनिश्चित करे तो हम फिर से खड़े हो सकते हैं।
- अजय मल्लिक
हमारा पेशा पीढ़ियों से चला आ रहा है। मेहनत बहुत करते हैं लेकिन दाम नहीं मिलता। बांस और बाकी सामग्री महंगी है। अगर सरकार लोन और बाजार की व्यवस्था कर दे तो हालात बदल सकते हैं।
- विभाष मल्लिक
हम बांस के सूप-दउरा बनाकर बच्चों का पेट पालते हैं। अब बाजार खत्म हो गया है। सरकार लोन और बाजार की सुविधा दे ताकि यह पुराना हुनर और हमारा जीवन बचा रहे।
- फूलचंद मल्लिक
हमारी रोजी-रोटी इसी काम से चलती थी। अब काम मिलना और सामान बिकना मुश्किल हो गया है। सरकार से मांग है कि कारीगरों के लिए विशेष योजना बनाई जाए।
- जंगल तुरी
हमारी पुश्तैनी कला अब खत्म होने की कगार पर है। बांस महंगा है और ग्राहक नहीं मिलते। सरकार को चाहिए कि लोन और स्थायी बाजार उपलब्ध कराए ताकि हम भी सम्मान के साथ जीवन जी सकें।
- महेंद्र तुरी
बोले जिम्मेदार
सरकार पारंपरिक कारीगरों के हित में पूरी संवेदनशीलता के साथ काम कर रही है। सूप-दउरा, झाड़ू और बांस के उत्पाद बनाने वाले कारीगरों की समस्याओं को गंभीरता से लिया गया है। इन्हें बाजार उपलब्ध कराने, सरल शर्तों पर बैंक से ऋण दिलाने और हुनर को संरक्षित करने के लिए योजनाएं तैयार की जा रही हैं। लोकल टू ग्लोबल के तहत इन उत्पादों को प्रमोट करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे। जिला प्रशासन और संबंधित विभाग इनके प्रशिक्षण, उत्पाद की ब्रांडिंग और विपणन पर फोकस करेगा, ताकि इनकी आजीविका सुनिश्चित हो सके।
-विजय सिंह, विधायक, बरारी, विधानसभा
बॉटम स्टोरी
झुग्गी में रहकर करते हैं मेहनत, पूरी नहीं होती उम्मीद
कटिहार, हिन्दुस्तान प्रतिनिधि। कभी बांस से बनी डलिया, सूप-दउरा और चंगेरा के बिना छठ पूजा की कल्पना अधूरी मानी जाती थी। इन हस्तशिल्पों में मेहनत और सृजन का जादू बसता था। लेकिन अब वही हुनर भूख और बेबसी से हारता दिख रहा है। शहर के स्लम एरिया एवं सिंगल टोला तथा एन एच 31 किनारे कुरसेला में बसे करीब 30 फीसदी ऐसे परिवार हैं, जिनके पास सिर छुपाने तक की अपनी ज़मीन नहीं। बांस के काम से पेट पालने वाले इन कारीगरों की दुनिया अब झुग्गी-झोपड़ी में सिमट गई है।
सूप, झांपी एवं बांस निर्मित हाथ पंखा बनाने वाले संजीत मल्लिक बताते हैं कि कभी छठ के मौसम में सूप-दउरा बनाने की होड़ लगी रहती थी, अब तो त्योहार में भी काम सूना है। लोग मशीन से बना प्लास्टिक खरीद रहे हैं, हमारी मेहनत मिट्टी में मिल रही है। पूजा देवी कहती हैं कि बच्चे स्कूल से ज्यादा भूख समझने लगे हैं। झाड़ू, दउरा के दाम लागत से भी कम मिलते हैं। जमीन के अभाव में राष्ट्रीय उच्च पथ के किनारे झुग्गी झोपड़ी में जीवन बिताने की विवशता है। सरकारी योजनाएं पोस्टर में हैं, जमीन पर नहीं। कारीगरों की एक ही दरख्वास्त है कि यदि सरकार सस्ती दर पर लोन, कच्चा माल और एक स्थिर बाजार दे दे, तो हुनर फिर से घर-आंगन में लौट सकता है। हुनर जिंदा है, बस गुजारा मर रहा है। छठ की रोशनी के साथ इनकी उम्मीदें भी फिर जगें, यही आस है।
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