इंडसइंड बैंक के शेयर में क्यों आया भूचाल, ₹1576 से ₹672 पर आ गया
- इंडसइंड बैंक के शेयर 8 अप्रैल, 2024 को ₹1576.35 के 52-सप्ताह के उच्च स्तर से 57% गिरकर गुरुवार को ₹672.35 हो गए हैं। अब भी इस किस्से से जुड़े बहुत से सवालों के जवाब सामने नहीं आए हैं और हर जवाब के साथ नए सवाल खड़े होते जा रहे हैं।
पिछला मंगलवार इंडसइंड बैंक के लिए अमंगल साबित हुआ। एक दिन में शेयर बाजार में इस बैंक के शेयरों की कीमत एक चौथाई से ज्यादा गिर गई। दूसरी, इंडसइंड बैंक के शेयर 8 अप्रैल, 2024 को ₹1576.35 के 52-सप्ताह के उच्च स्तर से 57% गिरकर गुरुवार को ₹672.35 हो गए हैं। शुक्रवार को होली के मौके पर बाजार बंद थे।
वजह बैंक ने खुद ही शेयर बाजार को बताई थी। अब भी इस किस्से से जुड़े बहुत से सवालों के जवाब सामने नहीं आए हैं और हर जवाब के साथ नए सवाल खड़े होते जा रहे हैं। शायद इसीलिए आज भी यह यकीनी तौर पर कहना मुश्किल है कि यहां राई का पहाड़ बन गया या फिर यह मामला जितना दिख रहा है, उससे कहीं बड़ा भी हो सकता है!
क्यों टूटा शेयर
मंगलवार को बैंक ने खुद ही स्टॉक एक्सचेंजों को खबर दी कि उसके विदेशी मुद्रा के वायदा, यानी डेरिवेटिव सौदों के हिसाब-किताब में कुछ गड़बड़ी निकली है। यह गड़बड़ी भी किसी घोटाले या जालसाजी की वजह से नहीं, बल्कि बैंक के हिसाब रखने के तरीकों की वजह से हुई है।
बही-खातों में गड़बड़ी पकड़ी गई
कुल मिलाकर, बैंक ने यह कुबूल किया है कि विदेशी मुद्रा के वायदा सौदों में उसने जो फायदे-नुकसान का हिसाब लगा रखा था, असल रकम उसके मुकाबले करीब 1,520 करोड़ रुपये कम निकली। खास बात यह है कि यह कोई ताजा मामला नहीं है। बही-खातों में जो गड़बड़ी पकड़ी गई, वह लगभग सात साल के हिसाब-किताब में चली आ रही गड़बड़ियों का हासिल है। ये सात साल भी पिछले साल, यानी 2024 के अप्रैल में पूरे हो चुके थे। मगर बात खुल अब क्यों रही है?
मास्टर सर्कुलर में बदलाव
दरअसल, पिछले साल रिजर्व बैंक ने बैंकों के डेरिवेटिव सौदों पर अपने मास्टर सर्कुलर में कुछ बदलाव किए थे। उसका पालन करने के लिए जब इंडसइंड बैंक ने अपने हिसाब-किताब की दोबारा पड़ताल की, तो बैंक की अंदरूनी जांच में यह गड़बड़ी पकड़ी गई। यह बात भी पिछले साल सितंबर-अक्टूबर के बीच की है, लेकिन बैंक ने स्टॉक एक्सचेंजों को इस मामले की खबर दी पिछले मंगलवार, यानी 10 मार्च को।
यही दिन था, जब बैंक के शेयरों ने 27 प्रतिशत का गोता लगाया। वैसे, बाजार में इस बैंक के शेयरों की पिटाई एक दिन पहले ही शुरू हो चुकी थी, क्योंकि रिजर्व बैंक ने उसके सीईओ सुमंत कठपालिया का कार्यकाल सिर्फ एक साल बढ़ाए जाने को मंजूरी दी। इंडसइंड बैंक उनका कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़वाना चाहता था। यह खबर मिलने पर भी बैंक के शेयर चार फीसदी के लगभग गिर चुके थे और अगले दिन हिसाब की गड़बड़ी सामने आई, तो एकदम कोढ़ में खाज जैसा हाल हो गया।
बहरहाल, बैंक का मतलब ही होता है भरोसा। जितना ज्यादा भरोसा, उतना मजबूत या उतना बड़ा बैंक, लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है। इसीलिए बडे़ से बड़ा बैंक अपनी साख या अपने भरोसे को कायम रखने के लिए हरसंभव कोशिश करता है। बैंक की साख पर जरा सी आंच आने का नतीजा क्या होता है, यह समझने के लिए फिलहाल तो यस बैंक को याद करना ही काफी होगा।
इंडसइंड बैंक में आखिर हुआ क्या
इंडसइंड बैंक में आखिर हुआ क्या? बैंक जिस तरह भारतीय ग्राहकों से डिपॉजिट लेते हैं या उन्हें लोन देते हैं, उसी तरह वे विदेशी ग्राहकों से भी लेन-देन करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां घरेलू लेन-देन रुपये में होता है, वहीं विदेशी लेन-देन विदेशी मुद्रा में होता है। अब बैंक के पास दो रास्ते हैं। या तो वह जिस मुद्रा में डिपॉजिट ले, उसी में अपने पास रखे और फिर उसी मुद्रा में कर्ज देने का मौका मिलने पर वहां लगाए या दूसरा तरीका है कि वह जमा रकम को रुपयों में बदल डाले और अपने घरेलू कारोबार में इस्तेमाल कर ले।
इसी तरह, जब उसे विदेशी मुद्रा में कर्ज देना हो, तो वह भारतीय रुपये को उस मुद्रा में बदलकर कर्ज देने के लिए काम में लाए। दिक्कत यह है कि विदेशी मुद्रा बाजार में रोज के हेर-फेर के साथ बैंक की लेनदारी और देनदारी भी ऊपर-नीचे होती रहेगी। इसमें लॉटरी भी लग सकती है और अचानक बड़ा नुकसान भी हो सकता है।
ऐसे नुकसान से बचने के लिए ही जरूरी है कि ऐसा कोई सौदा करने के साथ ही बैंक उस जोखिम को कवर करने के लिए विदेशी मुद्रा के वायदा बाजार में हेजिंग कर ले, यानी ऐसा वायदा सौदा कर ले, जिससे करेंसी के उतार-चढ़ाव की हालत में बैंक का घाटा कवर हो जाए। बैंक को इन सौदों पर होने वाला नफा-नुकसान भी अपने बही-खातों में दिखाना चाहिए।
यहां दिक्कत यह है कि जहां ऐसे सौदे बैंक को खुले बाजार में करने चाहिए, बहुत से बैंक खुद अपने ही कारोबार के भीतर ऐसे सौदे कर डालते हैं। शक है, इंडसइंड बैंक भी बड़ी संख्या में ऐसे सौदे कर रहा था। और बड़ी बात यह है कि इन सौदों के नफा-नुकसान का जो हिसाब रोज मिलाया जाना चाहिए, ताकि बैंक के बही-खाते में दिख सके, वह ठीक से नहीं हो रहा था।
इसीलिए मामला अब सेबी की जांच के दायरे में भी है। एक तरफ सेबी को यह जांच करनी है कि यह लिस्टिंग करार का उल्लंघन है या नहीं? साथ ही, उसे यह भी पता लगाना होगा कि क्या बैंक के भीतर के लोगों ने पूरा मामला सामने आने के पहले अपने शेयर बेचकर खुद को घाटे से बचाने की कोशिश की थी? ऐसी खबरें हैं कि बैंक में ऊंचे पदों पर बैठे कुछ लोगों ने अपने करीब अस्सी प्रतिशत शेयर तब बेचे थे, जब शेयरों के भाव अपने शिखर के करीब थे।
दूसरी तरफ, रिजर्व बैंक पर सवाल उठ रहा है कि आखिर सात साल तक यह गड़बड़ी चलती रही, तो पकड़ में क्यों नहीं आई? रिजर्व बैंक ने बैंकों की निगरानी के लिए जो इंतजाम किए हैं, क्या वे नाकाफी हैं? इससे यह शक भी होता है कि इंडसइंड बैंक जैसे हालात कहीं दूसरे बैंकों में भी तो सामने नहीं आएंगे?
इंडसइंड बैंक जैसा कांड दिखाता है कि सावधानी के बावजूद दुर्घटना की आशंकाएं बनी हुई हैं। यह देश का पांचवां सबसे बड़ा निजी बैंक है। इसीलिए जरूरी है कि रिजर्व बैंक और सेबी जल्दी से जल्दी इसके कामकाज पर उठ रहे हरेक सवाल का जवाब सामने लाएं और इस मामले के दोषियों को उनके अंजाम तक पहुंचाएं, ताकि भारत की बैंकिंग प्रणाली पर उठने वाले सवालों को विराम दिया जा सके और देश की अर्थव्यवस्था की साख को बेदाग रखा जा सके।
अभी भी भारतीय बैंकों में अनेक सुधारों की जरूरत है। अभी भी देश के आम ग्राहक पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं और बैंक अपने आम ग्राहकों का विश्वास जीतने के लिए कई जरूरी कदम उठा सकते हैं।
(ये लेखक आलोक जोशी के अपने विचार हैं)