बोले रांची: हमारे एक्शन, इमोशन और ड्रामा में सिर्फ स्याह रंग
झारखंड में फिल्म निर्माण को लेकर कलाकारों और फिल्म निर्माताओं में निराशा है। राज्य में विशेष नीतियों और योजनाओं की कमी के कारण स्थानीय कलाकारों को कोई सहायता नहीं मिल रही है। फिल्म नीति का लाभ बाहरी...

रांची, वरीय संवाददाता। झारखंड की स्थापना के 24 साल से ज्यादा हो गए। इतने लंबे अंतराल के बाद भी लोक संस्कृति और कला के प्रदेश में कलाकार और फिल्म निर्माता निराश हैं। कारण, उनके लिए राज्य में न कोई विशेष नीति है, न ही कोई विशेष योजना। वहीं, जो झारखंड फिल्म नीति है उसका लाभ राज्य के फिल्म निर्माताओं को नहीं मिल पाता। हिन्दुस्तान का ‘बोले रांची कार्यक्रम इसी मुद्दे पर हुआ। इसमें झारखंड के फिल्म निर्माता और लोक कलाकार शामिल हुए। उन्होंने कहा, राज्य गठन के बाद कई दलों की सरकारें आईं, लेकिन जिन झारखंडी फिल्म निर्माता और कलाकारों ने राज्य गठन व अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और आंदोलन को अपनी फिल्मों व गीतों से धार देने का काम किया, उन्हें भुला दिया गया। वे अपनी फिल्मों में राज्य की खूबसूरती के साथ एक्शन, इमोशन और ड्रामा तो दिखाते हैं, लेकिन उनके जीवन में इसका सिर्फ स्याह रंग ही है।
हिन्दुस्तान के ‘बोले रांची कार्यक्रम में झारखंड के फिल्म निर्माता और लोक कलाकार शामिल हुए। उन्होंने कहा कि आज झारखंड में जिस भी फिल्म का निर्माण हो रहा है, वह सिर्फ निर्माताओं के निजी प्रयास से ही हो रहा है। यहां के फिल्म निर्माताओं को राज्य सरकार से काफी उम्मीद थी कि उनके लिए कारगर योजनाएं बनेंगी। लेकिन, इस दिशा में सार्थक पहल का हमेशा अभाव ही रहा। हालांकि, पिछली सरकारों ने झारखंड फिल्म नीति जरूर बनाई, लेकिन इसका सीधा लाभ झारखंड के फिल्म निर्माताओं-कलाकारों को नहीं मिल सका। नीति के नाम पर गैर झारखंडी फिल्मकार और कलाकार ही करोड़ों सब्सिडी का पैसा लेकर चले गए।
कहा, झारखंड सरकार की कला व स्थानीय फिल्मों के प्रति सकारात्मक रूचि, उचित सलाह व सलाहकारों के अभाव में आज झारखंडी कलाकारों की प्रतिभा दम तोड़ रही है या दूसरे राज्यों में पलायन को विवश है। राज्य गठन के बाद से आज तक झारखंडी फिल्म नीति और साहित्य अकादमी के गठन को लेकर सिर्फ राजनीतिक रोटी ही सेकी गई है।
डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए विशेष प्रावधान हो
हिन्दुस्तान के बोले रांची कार्यक्रम में ट्राइबल सिनेमा ऑफ इंडिया (टीसीआई) के संयोजक दीपक बाड़ा ने कहा कि हर राज्य की अपनी विशेषता होती है, जिसे सिनेमा के माध्यम से दिखाया जा सकता है। डॉक्यूमेंट्री फिल्म इसका सशक्त माध्यम है, इसके लिए सरकार को गंभीर होना चाहिए। झारखंड में आदिवासी जनजातियों पर फिल्म बनाने के बहुत से विषय हैं। यहां की फिल्मों को राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पुरस्कार भी मिल रहे हैं, लेकिन अपने ही राज्य में न सहयोग है और न ही पहचान। कहा, राज्य में फिल्म निर्माण डिवीजन का गठन किया जाए और इसके जरिए सहयोग प्रदान किया जाए।
सिनेमाघरों को रेगुलर करने की जरूरत
कुड़ुख भाषा में एडपाकाना फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले निर्देशक निरंजन कुमार कुजूर ने हिन्दुस्तान के बोले रांची कार्यक्रम में कहा कि फिल्म निर्माण तो किसी तरह कर भी लिया जाए, लेकिन मार्केट उपलब्ध नहीं हो पाता है। सिनेमाघरों में फिल्म लगाने पर 70 प्रतिशत राशि सिनेमाघर मालिकों को देनी होती है, जबकि मात्र 30 प्रतिशत ही निर्माता को जाता है, जो उसकी लागत भी नहीं है। ऐसे में फिल्मों को फायदा तो छोड़ दिया जाए बाजार में प्रतिस्पर्द्धा भी नहीं मिल पाती है। वहीं, दूसरे राज्यों में सरकारें स्थानीय फिल्मों के लिए संजीदा हैं, इसलिए मराठी, बंगाली और अन्य राज्यों की फिल्में अच्छी चलती हैं।
बाहरी कलाकारों को सब्सिडी अपनों की होती है अनदेखी
झारखंड की माइका पर आधारित ‘अगली साइड ऑफ ब्यूटी फिल्म बनाकर जापान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार जीतने वाले दीपक बाड़ा ने कहा कि झारखंड फिल्म नीति राज्य में है। फिल्मों को सब्सिडी देने और आर्थिक सहायता देने का प्रावधान है, लेकिन इसके लिए नीयत का अभाव नजर आता है। अपने कलाकारों के साथ अन्याय कर सरकार बाहरी कलाकारों को बुलाकर सब्सिडी देती है। सरकार को इस दिशा में गंभीर होने की आवश्यकता है। इसके लिए फिल्म को कला के साथ रोजगार के रूप में भी देखना होगा।
कलाकारों के लिए सामाजिक सुरक्षा तय हो, योजनाएं बनें
बोले रांची कार्यक्रम में स्थानीय फिल्ममेकरों का कहना था कि झारखंड में कलाकारों के सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नजर नहीं आता है। पेंशन और स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं की बात होती है, लेकिन उसे अमलीजामा नहीं पहनाया जाता है। स्थिति यह है कि किसी तरह फिल्मकार फिल्म बना भी लेते हैं, लेकिन उनके पास इतनी राशि नहीं होती कि वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में शामिल होने के लिए इंट्री फीस भी भर सकें। सरकार को इसपर ध्यान देना चाहिए। कला-संस्कृति को संरक्षण और कलाकारों को सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलना चाहिए।
आदिवासी नायकों की गाथाओं को दिखाने के लिए मिले मंच
हिन्दुस्तान के ‘बोले रांची कार्यक्रम में स्थानीय फिल्ममेकरों ने कहा कि झारखंड के वीर शहीदों और आदिवासी नायकों की गाथाओं पर आधारित फिल्म बनाने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि राज्य सरकार पहल करे और फिल्ममेकरों से बात करे। अपने नायकों को हम याद तो करते हैं, लेकिन उनकी गाथा को अभी तक जन-जन तक नहीं पहुंचा सके हैं। नायकों की जीवनी को दिखाने के लिए मंच का भी अभाव है। इस वजह से झारखंड के लोग सहित देश की नई पीढ़ी आदिवासी नायकों और शहीदों के संघर्षशील जीवन व बलिदान को भूलती जा रही है।
नई पीढ़ी को मंच नहीं मिल रहा
झारखंड में फिल्म निर्माण को सरकार की ओर से प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। इससे राज्य की प्राकृतिक सुंदरता के साथ आदिवासी जन जीवन, जमीन, संस्कृति और संघर्षों को दिखाती फिल्मों का प्रमाणिक रूप से दस्तावेजीकरण डिजीटल स्तर पर नहीं हो पा रहा है। साथ ही नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए मंच भी नहीं मिल पा रहा है।
समस्याएं
-फिल्म निर्माण के लिए राज्य में सरकार की ओर से सहायता और समग्र योजना का अभाव।
- कलाकारों को संगठित करने का सरकारी स्तर पर कभी प्रयास नहीं किया गया।
- फिल्म सिटी या फिल्म सेंटर की कमी। संसाधन युक्त थिएटर का अभाव।
- स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण या कला संवर्द्धन का प्रयास नहीं किया जाना।
- मार्केटिंग या विपनन का रोडमैप नहीं, फिल्म प्रदर्शित करने में परेशानी।
समाधान
- फिल्म निर्माण के लिए सब्सिडी या आर्थिक सहायता के लिए सिंगल विंडो सिस्टम बने।
- कलाकारों को संगठित करने के लिए अकादमी या केंद्र बने, जहां कला का आदान-प्रदान हो सके।
- फिल्म सिटी के लिए पहल हो, इसे मूर्त रूप देने की जरूरत है।
- स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए अकादमी का गठन हो।
- सिनेमाघरों में स्थानीय फिल्मों के प्रदर्शन के लिए सरकारी प्रावधान हो।
:: बोले लोग ::
वित्तीय और तकनीकी सहायता और सहयोग का अभाव है। स्थानीय फिल्मकार, संगीतकार, कलाकार और तकनीशियन सीमित के लोग संसाधनों के अभाव के कारण अपनी रचनात्मक प्रतिभा को पूर्ण रूप से निखार नहीं पाते हैं।
- दीपक बाड़ा, डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता
प्रचार-प्रसार और वितरण में बाधाएं है। झारखंडी फिल्मों, संगीत, सांस्कृतिक प्रदर्शनी को बढ़ावा देने की जरूरत है। सिनेमाघरों, डिजिटल प्लेटफार्म और सार्वजनिक आयोजन में पर्यापत मंच नहीं मिल पाता।
- निरंजन कुजूर, फिल्म निर्माता
गैर-समावेशी नीति और भाषाई संरक्षण की कमी है। राज्य की वर्तमान फिल्म व संगीत नीतियां न तो स्थानीय कलाकारों, फिल्मकारों और न ही तकनीशियनों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती हैं।
- प्रबल महतो, फिल्म निर्माता
आदिवासी-क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के संरक्षण व प्रचार को समुचित स्थान नहीं मिल पा रहा है। यह राज्य सरकार की जिम्मेवारी भी है।
- प्रिंसी संदीप लकड़ा
भाषाओं और बोलियों की रक्षा व संवर्धन में सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है। क्योंकि इनसे ही समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का आधार सुनिश्चित होता है।
- इनुस कुजूर
एक कलाकार का पूरा जीवन कला को समर्पित होता है। यह उसके जीवन यापन का माध्यम भी होता है। बेहतर नीति के साथ कला का संरक्षण बहुत जरूरी है।
- सीआर हेम्ब्रोम
झारखंड फिल्म बोर्ड का गठन हो। इसमें आदिवासी कलाकारों, फिल्मकारों, संगीतकारों, तकनीशियनों और सांस्कृतिक विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व मिले।
- जगत लकड़ा
फिल्म बोर्ड का गठन हो। बोर्ड राज्य की फिल्म नीति, वितरण प्रणाली और वित्तीय प्रोत्साहन योजनाओं में स्थानीय आवश्यकताओं को समाहित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करने वाला हो।
- हरिश इबारा
स्थानीय फिल्म, संगीत और सांस्कृतिक परियोजनाओं के लिए विशेष अनुदान देने के साथ आर्थिक प्रोत्साहन के लिए प्रावधान बने।
- अनिकेत उरांव
प्रशिक्षण कार्यशालाओं और तकनीकी सहायता के लिए बजट में वृद्धि सुनिश्चित की जाए, ताकि रचनात्मक प्रतिभाओं को निरंतर सहयोग मिल सके।
- काजल मुंडू
एक समर्पित पेंशन फंड और सामाजिक सुरक्षा योजना बनाई जाए। जिसमें कलाकारों और फिल्मकारों को पर्याप्त वित्तीय सहायता, स्वास्थ्य बीमा व अन्य सुविधाओं का लाभ मिले।
- अविनाश बाड़ा
झारखंड के आदिवासी, स्थानीय छात्र, फिल्मकार, संगीतकार और तकनीशियनों को प्रमुख फिल्म व संगीत संस्थानों में छात्रवृत्ति व प्रशिक्षण के लिए आरक्षण उपलब्ध हो।
- समीर बेक
राज्य के सिनेमाघरों, डिजिटल व ओटीटी प्लेटफार्म के माध्यम से झारखंड की फिल्मों, संगीत कार्यक्रमों को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए प्रोत्साहन मिले।
- प्रवीण होरो
लेटेस्ट Hindi News , बॉलीवुड न्यूज, बिजनेस न्यूज, टेक , ऑटो, करियर , और राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।