मां बनकर खुद को ना करें नजरंदाज, इन आसान टिप्स से बनाएं हर दिन खास
मां की तुलना हमारे यहां भगवान से की जाती है। पर, अपेक्षाओं का यह भाव मांओं को अपराबोध में डुबाता चला जाता है। इस मदर्स डे (11 मई) खुद को ग्लानि के भाव में डुबोने की जगह कैसे बच्चे को प्राथमिकता देते हुए अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना सीखें, बता रही हैं स्वाति गौड़

कहते हैं कि मां होना ऐसा खास अहसास है, जिसकी तुलना दुनिया के अन्य अनुभवों से की ही नहीं जा सकती है। मां का आंचल अपने भीतर अपार खुशियां और प्रेम समेटे हुए होता है। पर, इस सफर में ऐसी चुनौतियां भी शामिल होती हैं जो कभी-कभी मां के मन में अपराधबोध यानी ग्लानि का भाव पैदा कर देती हैं। हमारे समाज में लड़कियों को शुरू से यही सिखाया जाता है कि परिवार की खुशी ही सर्वोपरि होती है। यही वजह है कि पहले घर-परिवार की देखभाल और बच्चा होने के बाद उसके लालन-पालन में लगी मां हमेशा यही सोचती रहती है कि वह अपने बच्चे के लिए जो कर रही है, वो कम तो नहीं है। आप अपने चारों ओर नजर दौड़ा लीजिए। स्कूल बस का इंतजार करती मां, घर के राशन से लेकर बच्चों को पार्क ले जाने तक दौड़ती मां और स्कूल के व्हाट्सऐप ग्रुप में परीक्षा का सिलेबस खंगालती हुई मां हर घर में मिल जाएगी।
क्यों होता है अपराधबोध?
शोध बताते हैं कि लगभग 80 प्रतिशत माताएं अपने बच्चे की देखभाल और लालन-पालन को लेकर अपराधबोध में डूबी रहती हैं। पर, ग्लानि का यह भाव सिर्फ दिमाग तक सीमित नहीं है क्योंकि इसका दुष्प्रभाव महिलाओं को शारीरिक रूप से भी झेलना पड़ता है। दिल्ली जैसे महानगर में अलग-अलग कामों से करीब 65 प्रतिशत महिलाएं पैदल यात्रा करती हैं, जिनमें लगभग 37 प्रतिशत यात्रा बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने और वापस लेने की होती है। विशेषज्ञों के अनुसार एक मां के लिए अपने बच्चों की जरूरतों को समझना और उनके अनुसार खुद को ढालना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है।
हालांकि हरेक महिला एक अच्छी मां बनने का हरसंभव प्रयास करती है, लेकिन बच्चों के साथ-साथ घर संभालने में लगने वाली ऊर्जा उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से बुरी तरह थका देती है, जिसके परिणामस्वरूप महिला के मन में अपराधबोध गहराने लगता है। इसी प्रकार बहुत-सी महिलाओं के पास बाहर जाकर नौकरी करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प होता ही नहीं है। ऐसे में अपने बच्चे को पूरा समय ना दे पाने का अपराध बोध हमेशा उनके मन में रहता है। इस अपराधबोध से निकलना बहुत जरूरी है अन्यथा यह ग्लानि का भाव उन्हें खुलकर जिदंगी जीने से रोकता रहता है। हर छोटी-छोटी बात के लिए स्वयं को जिम्मेदार ठहराना बंद कर दीजिए ताकि आप अपने बच्चे की परवरिश एक सुखद अनुभव के रूप में कर सकें।
ना रखें ग्लानि का भाव
मां बनना एक बेहद प्यारा अनुभव होता है, जो एक महिला को संपूर्णता का एहसास देता है। लेकिन इस अनुभव में बहुत से उतार-चढ़ाव भी आते हैं, जो एक आदर्श मां की छवि के अनुरूप नहीं होते हैं। पर इन उतार-चढ़ावों को अपनी परवरिश की कसौटी बना लेना समझदारी नहीं है क्योंकि एक मां होने के साथ-साथ आप एक इंसान भी हैं। खुद के साथ भी प्रेमपूर्वक पेश आएं, क्योंकि जब आप तनाव और ग्लानि से मुक्त रहेंगी तो अपने बच्चे की परवरिश ज्यादा बेहतर तरीके से कर पाएंगी। परवरिश के इस सफर से अपराध बोध को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए क्या करें, आइए जानें:
खुद को समय देना नहीं बुरा
अकसर माताएं अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करने में इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि खुद के बारे में सोचती तक नहीं हैं। नतीजतन, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है और तनाव, थकान तथा चिड़चिड़ाहट जैसी समस्याएं घेरने लगती हैं। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अपने लिए समय निकालने का नियम अवश्य बनाएं, ताकि आप शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से कमजोर नहीं बल्कि मजबूत महसूस करें। अपने शौक पूरे करने से लेकर अकेले घूमने जाने तक जो भी आपको पसंद हो, वह अवश्य करें।
मदद मांगना है अच्छा
हमारा सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा है, जहां एक महिला से अपेक्षा की जाती है कि वह सारे काम अकेले संभाल लेंगी। लेकिन ऐसी धारणा रखना गलत है क्योंकि बच्चे का लालन-पालन करते हुए बाकी जिम्मेदारियां भी संभालना कोई आसान काम नहीं है। ऐसे में अपने जीवनसाथी, परिवार के अन्य सदस्यों या करीबी दोस्तों से मदद मांगने में कोई बुराई नहीं है, बल्कि उन लोगों को आपकी सहायता करके अच्छा लगेगा।
करिअर से समझौता क्यों
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जहां महिलाओं ने अपने परिवार को संभालते हुए भी अपने करियर को नहीं त्यागा। आप भी ऐसा कर सकती हैं, बस पेशेवर जिम्मेदारियां निभाते समय पारिवारिक प्रतिबद्धता का भी ख्याल रखें। ऑफिस और घर के काम के बीच ऐसा संतुलन बनाकर रखें कि आपको एक आदर्श अभिवाभक ना होने का अपराधबोध कम महसूस ना हो।
रखें कायम अपनी पहचान
बेशक आपकी पूरी दुनिया अपने बच्चों के चारों ओर ही घूमती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आप अपनी पहचान ही खो दें। अपनी उन खूबियों को जिंदा रखें, जो आपको दूसरों से अलग बनाती हैं। कोई महिला अच्छी बेकर तो कोई अच्छी पेंटर हो सकती है। हो सकता है किसी को कविताएं लिखने का शौक हो तो कोई बहुत अच्छा गाना गाती हो। कहने का अर्थ है कि अपने अंदर के कलाकार को हरसंभव तरीके से जिंदा रखें।
सामाजिक दबाव में ना आएं
एक आदर्श मां होने की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है क्योंकि प्रत्येक घर का माहौल और परिस्थिति अलग-अलग होती है। फिर भी बहुत-सी महिलाएं इतने सामाजिक दबाव में आ जाती हैं कि कुछ भी गलत होने पर स्वयं को उसका दोषी मानने लगती हैं। बच्चे की परवरिश एक सीधी लकीर पर नहीं चलती है, इसलिए हर बात के लिए स्वयं को दोषी मान लेना समझदारी की बात नहीं है। बेहतर होगा कि दूसरों के दबाव में आने की बजाय आप अपने हिसाब से अपने बच्चों का लालन-पालन करें।
डालें ना कहने की आदत
सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के बीच तालमेल बैठाने के प्रयास में अकसर महिलाएं किसी बात को लेकर असहमति व्यक्त करने में सहज महसूस नहीं करती हैं। उन्हें लगता है कि किसी बात के लिए ना कह देने पर सामने वाले को बुरा लग जाएगा। लेकिन अपनी ऊर्जा बचाने के लिए यह सीखना बहुत जरूरी है कि कब और किस बात के लिए ना कह देना चाहिए। याद रखिए, अपनी सीमाओं का निर्धारण करना आपको बेवजह की थकान, अपराध बोध और तनाव से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है।
(डॉ. मीनाक्षी मनचंदा, मनोचिकित्सा विभाग की सहनिदेशक, एशियन अस्पताल से बातचीत पर आधारित)
मां देती हैं ये सीख
विभिन्न शोधों में पता चला है कि एक बच्चे के विकास में उसके आसपास के माहौल और लोगों के व्यवहार का तो महत्वपूर्ण योगदान होता ही है, लेकिन उनके व्यक्तित्व विकास पर मां की सोच और विचारों का सबसे गहरा प्रभाव पड़ता है। विशेष रूप से लड़के भावनात्मक होना, संवेदनशीलता और करुणा भाव रखने की कला जैसे बहुत सारे गुण अपनी माता से ही ग्रहण करते हैं।
बच्चे अपनी मां को बिना संयम खोए तनाव से निपटते देखकर अपने जटिल मनोभावों को सहजता से लेना सीखते हैं।
अपनी मां द्वारा परिवार के सदस्यों और दूसरों की देखभाल करने की प्रवृत्ति बच्चों में करुणा भाव को बढ़ाती है।
महिलाओं में बातचीत के माध्यम से लड़ाई-झगड़े सुलझाने का कौशल से बच्चों में अहिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ाता है।
महिलाएं स्वाभाविक रूप से ही दयालु होती हैं, इसलिए दूसरों की गलतियों को माफ कर देने का गुण भी बच्चों में उनकी माताएं ही विकसित करती हैं।
जब बच्चे अपनी मां को एक ही बार में बहुत सारी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का निर्वाह करते देखते हैं, तो उनके भीतर भी सहनशीलता जैसे गुण विकसित होते हैं।
कामकाजी माताओं के बच्चे जब उन्हें ऑफिस और घर की जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाते हुए देखते हैं, तो उनके अंदर भी अनुशासन और जिम्मेदारी का भाव बढ़ता है।
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