दावा: भूकंप की आड़ में छिपाए जा सकते हैं परमाणु परीक्षण
एक नए अध्ययन में कहा गया है कि कुछ देश भूकंप का बहाना बनाकर भूमिगत परमाणु परीक्षण कर सकते हैं। भूकंप और विस्फोट के सिग्नल मिल जाने पर आधुनिक डिटेक्टर भी विस्फोट का सही पता नहीं लगा पाते। यह अध्ययन...

नई दिल्ली, एजेंसी। एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि कुछ देश भूकंप का बहाना बनाकर भूमिगत परमाणु परीक्षण कर सकते हैं। ऐसा इसलिए मुमकिन हो सकता है क्योंकि भूकंप के सिग्नल की वजह से परमाणु विस्फोट का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। यह अध्ययन अमेरिका की लॉस एलामॉस नेशनल लैबोरेटरी के वैज्ञानिक जोशुआ कार्माइकल और उनकी टीम ने किया है। अध्ययन बुलेटिन ऑफ द सीस्मोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ अमेरिका में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर भूकंप और परमाणु विस्फोट एक ही समय के आसपास होते हैं, तो आधुनिक सिग्नल डिटेक्टर भी विस्फोट का सही-सही पहचान नहीं कर पाते। जोशुआ कार्माइकल के अनुसार, जब भूकंप और विस्फोट के सिग्नल आपस में मिल जाते हैं, तो डिटेक्शन सिस्टम उन दोनों को अलग नहीं कर पाते, जिससे विस्फोट का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। यह अध्ययन परमाणु परीक्षण की निगरानी करने वाले वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौती प्रस्तुत करता है।
सिग्नल डिटेक्टर फेल
-अगर किसी परमाणु विस्फोट के 100 सेकंड के अंदर और 250 किलोमीटर के दायरे में भूकंप आता है, तो सबसे एडवांस डिटेक्टर भी विस्फोट को पहचानने में केवल 37 फीसदी ही सफल होते हैं, जबकि अकेले विस्फोट होने पर यह सफलता दर 97 फीसदी तक होती है।
-यदि किसी इलाके में छोटे-छोटे भूकंप लगातार आ रहे हों, तो विस्फोट को पहचानने की संभावना और भी घट जाती है। ऐसे मामलों में डिटेक्टर की सफलता दर 92 फीसदी से घटकर केवल 16 फीसदी रह जाती है।
उत्तर कोरिया में बढ़ी भूकंपीय गतिविधि
उत्तर कोरिया में पिछले 20 वर्षों में छह परमाणु परीक्षण किए गए हैं। वहां हाल के वर्षों में कई छोटे भूकंप भी दर्ज किए गए हैं। जोशुआ कार्माइकल का कहना है कि पहले माना जाता था कि उत्तर कोरिया में भूकंप कम आते हैं, लेकिन अब नए डाटा से पता चला है कि परमाणु परीक्षण स्थलों के पास काफी कम तीव्रता वाली भूकंपीय गतिविधियां हो रही हैं।
इस तरह हुआ अध्ययन
इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नेवादा के नेशनल सिक्योरिटी साइट से मिले डाटा का उपयोग किया। वहां हुए परमाणु परीक्षणों के सिग्नल को छोटे आकार में बदलकर भूकंप के डाटा में मिलाया गया, और फिर यह देखा गया कि क्या डिटेक्टर इन सिग्नल को पहचान पा रहे हैं या नहीं।
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