बोले फर्रुखाबाद:शिक्षा बनी कारोबार और हमें बना दिया उपभोक्ता
Farrukhabad-kannauj News - शहर में निजी स्कूलों द्वारा मनमाने तरीके से फीस वसूली जा रही है। अभिभावक किताबों, कॉपी और ड्रेस की ऊँची कीमतों के कारण परेशान हैं। कई स्कूल एनसीईआरटी की किताबें तक नहीं प्रयोग में ला रहे हैं।...
शहर मे भी जिस तरीके से निजी स्कूलों ने मनमाना रवैया अपना रखा है और मर्जी से संस्थाएं चला रहे हैं इस पर कोई रोकने और टोकने वाला तक नहीं है। जिम्मेदारों को भी परवाह नहीं है। इससे अभिभावक शोषण का शिकार हो रहा है। किताब, कॉपी, फीस, ड्रेस की कीमत में ही उलझकर अभिभावक इस तरह चिंतित है कि वह अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएं? कई निजी स्कूलों के आगे तो जिम्मेदार भी पूरी तौर पर नतमस्तक दिखायी पड़ रहे हैं। अभिभावकों की मांग के बाद भी निजी विद्यालय में एनसीईआरटी की किताबें तक नहीं प्रयोग में आ रही हैं। आपके अपने अखबार ‘हिन्दुस्तान से चर्चा के दौरान शिवम त्रिपाठी कहते हैं कि निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा है। यही वजह है कि अब तो निजी स्कूलों में आम लोग अपने बच्चों को पढ़ा भी नहीं सकते हैं। बच्चे के एडमीशन पर पहले जबरदस्त शुल्क लिया जाता है, उसके बाद तो फीस की जो मारामारी रहती है उससे समस्याएं बढ़ जाती हैं। कक्षा एक से लेकर पांच तक में स्कूल वालों ने पाठ्य पुस्तक स्टाल वालों से समझौता कर रखा है।
हरीशंकर गुप्ता कहते हैं कि जो एनसीईआरटी की किताबों का सेट पांच-छह सौ रुपये में उपलब्ध हो जाता है उन्हें उपयोग में न लाकर स्कूल वाले निजी प्रकाशकों की पुस्तकों के लिए बाध्य करते है। जिसकी कीमत छह से सात हजार रुपए तक होती है। राजेश मिश्रा कहते हैं कि समाजसेवा का हिस्सा माने जाने वाली शिक्षा ने जैसे-जैसे व्यवसायिकता का चोला ओढ़ा है वैसे ही अभिभावकों की समस्याएं भी बढ़ती चली गई हैं। समस्याओं के समाधान के लिए शासन और प्रशासन के दावे तो बहुत हैं मगर जमीनी हकीकत इससे अधिक है। आदेश अवस्थी कहते हैं कि निजी स्कूल किसी प्राइवेट सेक्टर की तरह काम करते हैं। वह हमें अभिभावक न मानकर एक उपभोक्ता मानते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है। अभिभावक राजीव सक्सेना कहते हैं कि मोटी फीस लेने के बाद भी स्कूल अलग-अलग तरीके से कमाई करते हैं। कापी, किताबें, स्टेशनरी, यूनीफाॅर्म आदि में बदलाव करके अभिभावकों पर बोझ डाल देते हैं। किताबों की कीमतें भी इतनी अधिक कि देखकर हैरानी होती है। मुकेश मिश्रा कहते है कि काॅपी पर स्कूल का मोनोग्राम लगते ही कीमत आसमान छूने लगती है। ठीक यही हाल ड्रेस का भी है। ड्रेस की क्वालिटी भी घटिया होती है। कई बार स्थित यह रहती है कि ड्रेस एक सत्र भी नहीं चल पाती है। जबकि यूनीफॉर्म की कीमत स्टैंडर्ड वाली यूनीफॉर्म की तरह ही वसूल की जाती है।
सुझाव-1.
शुल्क कानून के सभी प्रावधानों को हर हालत में सख्ती से लागू कराएं।
2. सभी निजी स्कूलों में अभियान चलाकर 25 फीसदी सीटों पर आरटीई के तहत प्रवेश कराएं।
3. किताबों में बदलाव करने से पहले डीआईओएस और बीएसए की कमेटी से अनुमोदन लिया जाए।
4. अभिभावकों के शिकायतों के निस्तारण के लिए हर महीने प्रशासनिक स्तर से बैठकें होनी चाहिए।
5. पांच वर्ष से पहले यूनीफाॅर्म मे बदलाव और फीस में बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए।
शिकायतें-
1. स्कूलों में लगभग हर वर्ष किताबों में परिवर्तन करने से अभिभावकों को आर्थिक नुकसान होता है।
2. तमाम स्कूल वाले यूनीफॉर्म में भी हर वर्ष आर्थिक बोझ बढ़ाने को बदलाव कर देते हैं ।
3. शिक्षक-अभिभावक संघ की बैठक में सिर्फ लकीर पीटी जाती है। अभिभावकों की समस्या नहीं सुनी जाती।
4. हर वर्ष एनुअल फंक्शन के नाम पर भी अभिभावकों से मोटी रकम वसूल की जाती है ।
5. गठजोड़ में शामिल बुक स्टाल वाले अभिभावकों को किताब सेट में कोई राहत नहीं देते। यह धांधागर्दी है।
बोले अभिभावक-
स्कूल संचालक पूरी तरह से व्यवसायिक हो गएं हैं। उन्हें अभिभावकों की समस्या से कोई लेना देना नहीं है। उनका अपना स्वार्थ है।
-प्रतिभा वर्मा
निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगे। अधिकारियों की ही
मिलीभगत है जो कि कार्रवाई नहीं की जाती है।
-शैलजा शर्मा
रोज भारी भरकम होमवर्क दे दिया जाता है। इससे बच्चे मानसिक रूप से परेशान हो जाते हैं। इस पर अंकुश लगना चाहिए।
-दीप्ति शाक्य
कई स्कूलों में बच्चों से खेल भी नहीं कराए जाते हैं। उनके मानसिक विकास के लिए खेल भी कराए जाएं। इससे मानसिक स्तर बढ़ेगा।
-खुशी वर्मा
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