बोले काशी : हिंदी का सौंदर्य निखारने को चाहिए एक स्वतंत्र भवन
Varanasi News - वाराणसी में हिंदी सेवियों ने स्वतंत्र हिंदी भवन की मांग की है, जहां साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके। उन्होंने कहा कि बिना इस भवन के शहर का विकास अधूरा है। हिंदी को सांस्कृतिक और साहित्यिक...
वाराणसी। काशी हिंदी की जननी है, लेकिन आधुनिक दौर में यह पीछे छूटती जा रही है। जिस हिंदी को भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद और जगन्नाथ दास रत्नाकर आदि मूर्धन्य साहित्यकारों ने जीया और संजोया है, उसी हिंदी के लिए समर्पित ऐसा स्वतंत्र सभागार नहीं है, जहां हिंदी सेवियों की जुटान हो सके, विमर्श को नवीन गतिशीलता मिल सके। यह इस सांस्कृतिक शहर के लिए बहुत बड़ी ‘समस्या है। शहर के हिंदी सेवी संकल्पित हैं मगर उनके संकल्प को प्रशासन, सरकार और जिम्मेदार के सहयोग की दरकार है। हिंदी सेवियों के मुताबिक अभी संस्थागत रूप से सभागार तो हैं लेकिन वे हिंदी के प्रति की संपूर्णता के द्योतक नहीं माने जा सकते।
बदलते दौर में हिंदी के प्रति ललक बढ़ाने के लिए जरूरी है कि ऐसे भवन का खाका खींचा जाए जहां हिंदी सेवियों को एक छत के नीचे लाइब्रेरी, संग्रहालय, ठहरने का स्थान आदि मिल सकें। इस कदम से शहर के विकास को नया ‘ठौर मिलेगा, ऐसा भवन ‘हिंदी पर्यटक को भी खुद से जोड़ेगा। ईश्वरगंगी स्थित साहित्यिक संघ के कार्यालय में जुटे हिंदी सेवियों ने एक स्वर से मूर्धन्य साहित्यकारों को समर्पित स्वतंत्र ‘हिंदी भवन की मांग दोहराई। प्रो. श्रद्धानंद, दयानिधि मिश्रा, डॉ. जितेंद्र नाथ मिश्र, डॉ. मुक्ता ने कहा कि आज काशी में विकास के लिए लगातार कार्य कराए जा रहे हैं लेकिन मूर्धन्य साहित्यकारों की स्मृतियों-कृतियों को सजाने-संवारने का कोई उपक्रम नहीं हो रहा है। साहित्यकारों की स्मृतियों को सहेजे बगैर विकास कार्य अधूरे जैसे हैं। ज्ञान धारा के आलोक में काशी को धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक-साहित्यिक नगरी के रूप में भी मान्यता मिलनी चाहिए। कहा कि हिंदी सेवियों के लिए समर्पित स्वतंत्र भवन से भारतीय भाषाओं, संस्कृतियों का सौंदर्य और निखरेगा। बढ़ेगी साहित्यिक गरिमा डॉ. रामसुधार सिंह, हिमांशु उपाध्याय, डॉ. अशोक सिंह, ओम धीरज ने कहा कि हिंदी भवन के मूर्त रूप में आने से काशी की साहित्यिक गरिमा का संवर्धन होगा। इसके लिए हिंदी सेवियों के साथ ही साथ सभी को आगे आना होगा। इसके लिए तब तक प्रयास करते रहने होंगे जब तक कि मांग मूर्त रूप नहीं ले लेती। उन्होंने कहा कि बनारस भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों का भी केंद्र है। लघु भारत के रूप में ख्यात इस नगरी ने देश को साहित्य के क्षेत्र में कई रत्न दिए हैं। इनकी बनाई हुई बुनियाद को संवारना जरूरी है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी मांग को शासन की निगाह में लाने के लिए तत्पर रहें, नियोजित और समन्वित रूप में मजबूती से प्रयास करें। कहा कि आज हिंदी सेवियों के लिए काशी में कोई ऐसी जगह नहीं है जहां वे मिल बैठ सकें। जो स्थान सुलभ हैं, वे बहुत महंगे हैं। बताया कि पिछले दिनों स्व. विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में जिला पुस्तकालय में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान भी हिंदी भवन की आवश्यकता जताई गई थी। साहित्यकारों के नाम पर बनें चौराहे शिवकुमार पराग, नरेंद्र नाथ मिश्र ने कहा कि बेहतर समाज के लिए हिंदी भाषा की उन्नति-समृद्धि होनी चाहिए। मूर्धन्य साहित्यकारों के नाम से शहर में चौराहों का नामकरण भी किया जाए, इससे साहित्यिक संवेदनाएं स्पंदित होती रहेंगी। अगर ऐसा हो जाता है तो इससे नवीन पीढ़ी का निरंतर मार्गदर्शन भी होता रहेगा। डॉ. बेनी माधव, प्रीति जायसवाल ने कहा कि मूर्धन्य साहित्यकारों को समर्पित स्वतंत्र भवन होना चाहिए। इसके लिए कमेटियां बनाई जाएं जो जिला प्रशासन से इस संबंध में बात करे, अपनी मांग शासन तक पहुंचाए। इस भवन को ऐसा स्वरूप मिलना चाहिए जहां स्कूली बच्चे भी नियमित रूप से सहभागिता और अपने-अपने वय के अनुरूप विमर्श कर सकें। हिंदी के प्रचार-प्रसार की बातों को भी ऐसा जामा पहनाने की जरूरत है जिससे स्कूली बच्चों में भी हिंदी के प्रति लालसा निरंतर प्रवाहमान होती रहे। भाषा और साहित्य दोनों गतिमान रहें डॉ. मंजरी पांडेय, वासुदेव ओबेराय ने कहा कि राजभाषा हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में भी मान्यता मिलनी चाहिए। इसके अनेक सुखद परिणाम सामने आएंगे। अभी हिंदी जहां की तहां पड़ी है। हिंदी के उत्थान के लिए कोई समग्र-समन्वित आंदोलन नहीं हो रहा है। इसे पुष्पित और पल्लवित करने की दिशा में समग्र प्रयास होना चाहिए। सुरेंद्र वाजपेयी ने कहा कि हिंदी सेवियों के लिए स्वतंत्र भवन का स्वरूप ऐसा हो जहां पुस्तकालय भी ‘निहित रहे। भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म का समन्वित रूप हो, एक उदाहरण बने। साहित्यकारों की पांडुलिपियां भी लोगों को मूल रूप में दिखें। साहित्यिक पर्यटन को बढ़ावा डॉ. शशिकला पांडेय, डॉ. गिरीश पांडेय, कंचन सिंह परिहार ने कहा कि काशी के साहित्यकारों को एक ही जगह पर सहज रूप से समझा जा सके, ऐसा इंतजाम होना चाहिए। हिंदी संग्रहालय की भी जरूरत है। ऐसा होने से साहित्यिक पर्यटन को भी बढ़ावा मिल सकता है। हर स्तर पर इसके लिए प्रयास होते रहने चाहिए। कहा, आज सभागारों का किराया इतना अधिक है कि नियमित आयोजन संभव नहीं हो पाता। अतिथियों के ठहराने आदि पर भी बहुत खर्च होता है। अगर हिंदी के लिए समर्पित भवन मूर्त रूप लेता है तो इससे हिंदी की महत्ता और गरिमा को नया आयाम मिलेगा। ध्यान दे सरकार हिंदी के लिए समर्पित स्वतंत्र भवन की मांग लंबे समय से चल रही है। इसके बगैर काशी का विकास अधूरा है। -दयानिधि मिश्रा काशी को केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक-साहित्यिक नगरी के रूप में भी मान्यता मिलनी चाहिए। यह आज की जरूरत है। -डॉ. मुक्ता सभी सुविधाओं से युक्त हिंदी भवन की मांग हर हाल में पूरी की जानी चाहिए। इससे काशी की साहित्यिक गरिमा बढ़ेगी। -डॉ. रामसुधार सिंह हिंदी की अनवरत सेवा करता रहूंगा ताकि आने वाली पीढ़ी हिंदी की महत्ता समझे और स्वयं को हिंदी संस्कृति से जोड़े रखे। डॉ. जितेंद्र नाथ मिश्र सर्व विद्या की राजधानी काशी ज्ञान के साथ मनुष्यता को आलोकित करती है। साहित्यकारों के समर्पित भवन की जरूरत है। -प्रो. श्रद्धानंद हिंदी भवन की मांग के प्रति सचेष्ट और तत्पर रहना होगा। तब तक प्रयास करने होंगे, जब तक यह मूर्त रूप न ले ले। -हिमांशु उपाध्याय बनारस भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों का केंद्र है। अपनी मांग को शासन की निगाह में लाना होगा, तभी सफलता मिलेगी। -डॉ. अशोक सिंह हिंदी सेवियों, प्रेमियों को नियोजित और समन्वित रूप में मजबूती से प्रयास करना होगा, तभी लक्ष्य का संधान हो सकेगा। -ओम धीरज बेहतर समाज के लिए हिंदी भाषा की उन्नति-समृद्धि होनी चाहिए क्योकि भाषा ही हमारी सांस्कृतिक चेतना का जागृत स्वरूप है। -शिवकुमार पराग काशी में मूर्धन्य साहित्यकारों को समर्पित स्वतंत्र भवन होना चाहिए। इसके लिए कमेटी बने जो जिला प्रशासन से बात करे। -नरेंद्र नाथ मिश्र मूर्धन्य साहित्यकारों के नाम से शहर में चौराहों का नामकरण किया जाए, इससे साहित्यिक संवेदनाएं स्पंदित होती रहेंगी। -डॉ. बेनी माधव जनपद में हिंदी के प्रति समर्पित सभागार बने, जहां स्कूली बच्चों को भी नियमित रूप से सहभागिता का अवसर मिलता रहे। -प्रीति जायसवाल सुझाव शहर में विकास कार्य तभी सार्थक साबित हो सकेंगे जब हिंदी के लिए, हिंदी के प्रति समर्पित स्वतंत्र भवन बनाया जाए। मूर्धन्य साहित्यकारों के नाम से शहर में चौराहों का नामकरण किया जाए। इससे साहित्यिक संवेदनाएं स्पंदित होती रहेंगी। हिंदी भवन की मांग के प्रति हम सभी लोगों को सचेष्ट और तत्पर रहना होगा। तभी सफलता मिल पाना संभव हो सकेगा। काशी ज्ञान के साथ मनुष्यता को अनवरत आलोकित करती रहती है, ऐसे में मूर्धन्य साहित्यकारों को समर्पित भवन की जरूरत है। सभी सुविधाओं से युक्त हिंदी भवन की मांग पूरी होनी चाहिए। इससे काशी की साहित्यिक गरिमा बढ़ेगी, सम्मान भी बढ़ेगा। शिकायतें विकास कार्य अनवरत चल रहे हैं लेकिन साहित्यकारों और हिंदी के प्रति समर्पित स्वतंत्र भवन बनाने पर किसी का ध्यान नहीं है। मूर्धन्य साहित्यकारों के नाम से शहर में चौराहें नहीं हैं। इससे यहां की साहित्यिक संवेदनाएं और स्पंदन बाधित जैसा लगता है। हिंदी भवन की मांग लंबे समय से की जा रही है लेकिन आज तक किसी भी स्तर पर इसके लिए समग्र प्रयास नहीं किया गया। काशी ज्ञान के साथ मनुष्यता को अनवरत आलोकित करती है लेकिन यहां मूर्धन्य साहित्यकारों को समर्पित स्वतंत्र भवननहीं है। वाराणसी को धार्मिक नगरी के रूप में जाना जाता है, पर साहित्यिक नगरी के रूप में जानने के लिए प्रयास नहीं किए जाते। बोले जिम्मेदार भूमि की उपलब्धता पर है ध्यान भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद. जगन्नाथ दास रत्नाकर आदि मूर्धन्य साहित्यकारों के शहर में हिंदी भवन होना चाहिए। हिंदी सेवियों की मांग ध्यान में हैं। हमारा पूरा प्रयास है कि काशी में हिंदी के उत्थान और उसके सौंदर्य निखार के लिए जो भी मांगें हैं, वे पूरी हो सकें। इस कार्य की पूर्णता के लिए हमारा ध्यान भूमि की उपलब्धता पर है। भूमि उपलब्ध होने के साथ ही हिंदी सेवियों-प्रेमियों की मांग पूरी की जाएगी। हमारी भी व्यक्तिगत लालसा है कि काशी में हिंदी भवन का मूर्त रूप देख सकूं। -नीलकंठ तिवारी, विधायक, शहर दक्षिणी विधानसभा
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