कभी एक झटके में बंद करवा देते थे कश्मीर, अब अलगाववाद से अलग हुए 12 संगठन; क्या है हुर्रियत?
- शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से जुड़ा एक और संगठन, जम्मू एंड कश्मीर मास मूवमेंट (JKMM), अब उससे अलग हो गया है।

जम्मू-कश्मीर की सियासत और सामाजिक ताने-बाने में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का नाम पिछले तीन दशकों से एक अहम हिस्सा रहा है। कभी कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा का प्रमुख चेहरा माना जाने वाला यह संगठन आज अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रहा है। हाल के महीनों में इसके 12 घटक संगठनों ने हुर्रियत से नाता तोड़कर भारत के संविधान और एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है। यह बदलाव न केवल कश्मीर की राजनीति में एक नए युग की शुरुआत का संकेत देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि घाटी में अलगाववाद की जड़ें कमजोर पड़ रही हैं।
शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से जुड़ा एक और संगठन, जम्मू एंड कश्मीर मास मूवमेंट (JKMM), अब उससे अलग हो गया है। यह बीते कुछ महीनों में 12वां संगठन है जिसने अलगाववादी गठबंधन से दूरी बना ली है। गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटनाक्रम का स्वागत करते हुए शुक्रवार को एक्स (ट्विटर) पर लिखा, “मोदी सरकार के तहत जम्मू-कश्मीर में एकता की भावना हावी है। एक और हुर्रियत समर्थित संगठन, जम्मू-कश्मीर मास मूवमेंट ने अलगाववाद को त्याग कर भारत की एकता के प्रति पूर्ण समर्पण की घोषणा की है। मैं उनके इस कदम का दिल से स्वागत करता हूं।” उन्होंने आगे लिखा, “अब तक हुर्रियत से जुड़े 12 संगठन अलग होकर भारत के संविधान में विश्वास जता चुके हैं। यह प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के दृष्टिकोण की जीत है।”
JKMM की चेयरपर्सन फरीदा बहन जी ने गुरुवार शाम एक सार्वजनिक घोषणा में कहा कि उन्होंने और उनके संगठन ने न सिर्फ हुर्रियत के दोनों धड़ों से दूरी बनाई है, बल्कि किसी भी ऐसे एजेंडे से खुद को अलग किया है जो भारत के खिलाफ हो। फरीदा बहन जी ने कहा, “मेरी संस्था और मैं किसी भी ऐसे संगठन से संबद्ध नहीं हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत और उसके हितों के खिलाफ काम करता हो। हुर्रियत जैसी विचारधाराएं लोगों की वास्तविक आकांक्षाओं और समस्याओं को हल नहीं कर पाईं।”
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस: आखिर क्या है ये संगठन?
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का पूरा नाम ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (APHC) है। यह जम्मू-कश्मीर के विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों का एक गठबंधन है। इसकी स्थापना 9 मार्च 1993 को हुई थी, जिसका मकसद कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को एक राजनीतिक मंच प्रदान करना था। हुर्रियत का घोषित उद्देश्य कश्मीर के लोगों की "आकांक्षाओं" को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना और कश्मीर मुद्दे का "राजनीतिक समाधान" तलाशना था। इसके संस्थापक नेताओं में मीरवाइज उमर फारूक, सैयद अली शाह गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे नाम शामिल थे।
हुर्रियत ने अपने शुरुआती दिनों में कश्मीर में काफी प्रभाव बनाया। यह संगठन कश्मीर के लोगों की शिकायतों को आवाज देने का दावा करता था और भारत सरकार के साथ-साथ पाकिस्तान और कश्मीरी जनता को शामिल करते हुए त्रिपक्षीय बातचीत की वकालत करता था। हालांकि, भारत सरकार ने इसे हमेशा संदेह की नजर से देखा और इसे कश्मीर में सक्रिय चरमपंथी संगठनों का एक मुखौटा माना। हुर्रियत के कई नेताओं पर आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने और टेरर फंडिंग में शामिल होने के आरोप भी लगे।
हुर्रियत दो प्रमुख धड़ों में बंटी रही: मीरवाइज धड़ा (जो तुलनात्मक रूप से नरमपंथी माना जाता है) और गिलानी धड़ा (जो कट्टर अलगाववादी रुख के लिए जाना जाता था)। इन धड़ों के बीच वैचारिक मतभेदों ने संगठन की एकजुटता को अक्सर कमजोर किया। फिर भी, 1990 और 2000 के दशक में हुर्रियत कश्मीर की सड़कों पर हड़तालों, प्रदर्शनों और बंद के आह्वान के जरिए अपनी ताकत दिखाती रही।
हुर्रियत का कमजोर पड़ना: बदलते हालात
पिछले एक दशक में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की ताकत और प्रभाव में लगातार कमी आई है। इसके कई कारण हैं:
अनुच्छेद 370 की समाप्ति: अगस्त 2019 में भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने और राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के फैसले ने हुर्रियत के लिए बड़ा झटका साबित हुआ। इस फैसले ने कश्मीर की राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना को बदल दिया, जिससे अलगाववादी संगठनों का आधार कमजोर हुआ।
केंद्र सरकार की सख्त नीतियां: केंद्र सरकार ने आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई। हुर्रियत के कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया, उनकी संपत्तियां जब्त की गईं, और टेरर फंडिंग की जांच तेज की गई। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने हुर्रियत के वित्तीय स्रोतों को निशाना बनाया, जिससे संगठन की गतिविधियां लगभग ठप हो गईं।
नेतृत्व का संकट: सैयद अली शाह गिलानी जैसे कट्टर नेताओं के निधन और अन्य नेताओं की गिरफ्तारी या नजरबंदी ने हुर्रियत को नेतृत्वविहीन कर दिया। मीरवाइज उमर फारूक जैसे नेता भी लंबे समय तक नजरबंद रहे, जिससे संगठन की सक्रियता कम हुई।
कश्मीर में बदलता जनमानस: कश्मीर की युवा पीढ़ी अब हिंसा और अस्थिरता से तंग आ चुकी है। शिक्षा, रोजगार और विकास की चाहत ने अलगाववादी विचारधारा को कमजोर किया है। लोग अब मुख्यधारा की राजनीति और भारत के संविधान के तहत अपने अधिकारों की बात करना ज्यादा पसंद करते हैं।
12 संगठनों का हुर्रियत से किनारा
हाल के महीनों में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को एक के बाद एक झटके लगे हैं। अब तक 12 संगठनों ने हुर्रियत से नाता तोड़कर अलगाववाद को अलविदा कह दिया है। 8 अप्रैल को तीन अन्य संगठन- जम्मू कश्मीर इस्लामिक पॉलिटिकल पार्टी, जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम डेमोक्रेटिक लीग और कश्मीर फ्रीडम फ्रंट- भी हुर्रियत से अलग हो चुके हैं। 25 मार्च को जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट, डेमोक्रेटिक पॉलिटिकल मूवमेंट और फ्रीडम मूवमेंट ने भी हुर्रियत से नाता तोड़ने की घोषणा की थी। इनमें से कुछ संगठन सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत गुट से जुड़े हुए थे।
हुर्रियत छोड़ने वाले प्रमुख संगठन
- जम्मू-कश्मीर इस्लामिक पॉलिटिकल पार्टी
- जम्मू-कश्मीर मुस्लिम डेमोक्रेटिक लीग
- कश्मीर फ्रीडम फ्रंट
- जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट
- जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक पॉलिटिकल मूवमेंट
- जम्मू-कश्मीर तहरीकी इस्तेकलाल
- जम्मू-कश्मीर तहरीक-ए-इस्तिकामत
- जम्मू-कश्मीर मास मूवमेंट
इन संगठनों ने न केवल हुर्रियत से दूरी बनाई, बल्कि भारत के संविधान के प्रति अपनी निष्ठा भी जताई। इनके नेताओं ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वे अब भारत के हितों के खिलाफ कोई गतिविधि नहीं करेंगे और कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं को मुख्यधारा के लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर हल करना चाहते हैं।
उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर तहरीकी इस्तेकलाल के अध्यक्ष गुलाम नबी सोफी ने कहा, "हुर्रियत ने लोगों की उम्मीदों को पूरा करने में असफलता दिखाई है। मैं और मेरा संगठन अब भारत के संविधान में विश्वास रखते हैं।" इसी तरह, जम्मू-कश्मीर मास मूवमेंट ने भी अलगाववाद को खारिज करते हुए भारत की एकता के प्रति प्रतिबद्धता जताई।
इस बदलाव के मायने
हुर्रियत से 12 संगठनों का अलग होना कश्मीर की सियासत में एक बड़े बदलाव का प्रतीक है। यह घटनाक्रम दर्शाता है कि कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा अब अपनी जमीन खो रही है। लोग हिंसा और अशांति के बजाय शांति, विकास और स्थिरता चाहते हैं। इन संगठनों का भारत के संविधान के प्रति विश्वास जताना यह दिखाता है कि कश्मीरी जनता अब लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिए अपनी बात रखना चाहती है। यह केंद्र सरकार की नीतियों की सफलता का भी संकेत है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद केंद्र सरकार ने आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ सख्त कदम उठाए। इनमें टेरर फंडिंग पर रोक, अलगाववादी नेताओं पर कार्रवाई और विकास परियोजनाओं को बढ़ावा देना शामिल है। इन प्रयासों का असर अब साफ दिख रहा है। कश्मीर में अलगाववाद का कमजोर पड़ना न केवल भारत के लिए, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए सकारात्मक है। इससे क्षेत्रीय स्थिरता को बल मिलेगा और विकास के नए रास्ते खुलेंगे।