न्याय प्रणाली पर भारी पड़ रही स्टाफ की कमी
भारत की न्याय व्यवस्था में स्टाफ की कमी एक गंभीर समस्या बन चुकी है। अदालतों से लेकर पुलिस थानों और जेलों तक कर्मचारी कम हैं। 2022 के आंकड़ों के अनुसार, जेलों में 75.8% विचाराधीन कैदी हैं, जबकि केवल...

नई दिल्ली/औहना मुखर्जी। भारत की न्याय व्यवस्था में स्टाफ की कमी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। अदालतों से लेकर पुलिस थानों और जेलों तक हर जगह कर्मचारी कम हैं। इसी कारण मामले लटकते जा रहे हैं, जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ रही है और लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में यह तथ्य सामने आए हैं। जेलों में विचाराधीन कैदियों की भरमार 2022 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश की जेलों में कुल कैदियों में से केवल 23.3% दोषी सिद्ध थे, जबकि 75.8% विचाराधीन थे।
यह न्यायालयों में लंबित मामलों की भारी संख्या को दर्शाता है, जो हर वर्ष बढ़ती जा रही है। मानक के अनुसार कर्मी नहीं गृह मंत्रालय के मानकों के अनुसार, हर पुलिस स्टेशन में कम से कम तीन सब-इंस्पेक्टर और दस कांस्टेबल होने चाहिए, लेकिन दिल्ली को छोड़कर कोई भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश इस मानक को पूरा नहीं करता। महिलाओं की भागीदारी भी कम है, जेल स्टाफ में केवल 13.6% और उच्च न्यायालयों में महिला जजों की हिस्सेदारी 14% है। राज्यों की स्थिति रिपोर्ट में राज्यों को 10 में से अंक दिए गए हैं। बड़े राज्यों में स्टाफ की उपलब्धता के लिहाज से केरल 6.95, कर्नाटक 6.31 और महाराष्ट्र 5.75 अंक के साथ शीर्ष पर हैं, जबकि उत्तर प्रदेश 3.55, पश्चिम बंगाल 3.56 और झारखंड 3.66 अंक के साथ सबसे नीचे हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में असमानता आईजेआर 2025 के अनुसार, 2017 से 2023 के बीच ग्रामीण पुलिस स्टेशनों की संख्या में गिरावट आई है, जबकि शहरी क्षेत्रों में वृद्धि हुई है। 1981 में प्रकाशित नेशनल पुलिस कमिशन की सातवीं रिपोर्ट के अनुसार, एक पुलिस स्टेशन को 60,000 से अधिक आबादी की जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए और यदि वह सालाना 700 से ज्यादा अपराध दर्ज करता है तो नया थाना बनना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में एक थाना 150 किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल का नहीं होना चाहिए। लेकिन आईजेआर 2025 के मुताबिक, बिहार, केरल, तमिलनाडु और गोवा को छोड़कर बाकी राज्यों में यह मानक पूरे नहीं होते।
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