बोले अलीगढ: सीमित संसाधनों के साथ जीने को मजबूर मलिन बस्तियों निवासी
हिन्दुस्तान समाचार पत्र के अभियान बोले अलीगढ़ के तहत रविवार को शहर की मलिन बस्ती कैलाश गली में टीम ने लोगों से संवाद किया। लोगों ने बताया कि मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग मुख्य रूप से शहरी और ग्रामीण इलाकों में सीमित संसाधनों के साथ जीने को मजबूर हैं
हिन्दुस्तान समाचार पत्र के अभियान बोले अलीगढ़ के तहत रविवार को शहर की मलिन बस्ती कैलाश गली में टीम ने लोगों से संवाद किया। लोगों ने बताया कि मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग मुख्य रूप से शहरी और ग्रामीण इलाकों में सीमित संसाधनों के साथ जीने को मजबूर हैं। यहां पर अच्छे घर, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और रोजगार की सुविधाएं न के बराबर हैं। गरीबी की वजह से लोग अस्वास्थ्यकर वातावरण में रहते हैं, और बहुत से लोग जातिवाद, भेदभाव और शोषण का सामना करते हैं। आंबेडकर जयंती पर यह सवाल उठाना जरूरी है कि क्या उनके द्वारा दिए गए अधिकारों और उनके द्वारा स्थापित संविधान का असली लाभ इन बस्तियों में रहने वाले लोगों तक पहुंच पाया है।
लोगों ने कहा कि बाबा ने भारतीय संविधान के माध्यम से देश को समानता, स्वतंत्रता और बंधुता के आदर्श दिए। उन्होंने विशेष रूप से वंचित समाज के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने की नींव रखी। लेकिन संविधान लागू होने के 75 वर्षों बाद भी अलीगढ़ की मलिन बस्तियों में यह आदर्श सिर्फ पोस्टरों और भाषणों तक सिमट कर रह गए हैं। अलीगढ़ ज़िले में करीब 20 से अधिक बस्तियां हैं, जिनमें लाखों लोग रहते हैं। इनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग, और मुस्लिम समुदाय से आते हैं। इन बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं की हालत चिंताजनक है।
जीवन का अधिकार, लेकिन जीने लायक हालात नहीं
संविधान हर नागरिक को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है। लेकिन बस्तियों में नालियों का पानी घरों में घुसता है। गटर उफनते हैं और बरसात में छतें टपकती हैं। न सड़कें हैं, न रोशनी, न सफाई।
स्कूल हैं, लेकिन पहुंच नहीं
बच्चों को स्कूल भेजना अभिभावकों के लिए आर्थिक और सामाजिक संघर्ष जैसा है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी, शौचालय की असुविधा और जातिगत भेदभाव के कारण दर्जनों बच्चे 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। लड़कियां विशेष रूप से शिक्षा से बाहर हो जाती हैं।
योजनाएं कागजों में लागू, ज़मीन पर गायब
प्रधानमंत्री आवास योजना हो या उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत हो या शौचालय योजना इनका लाभ कुछ को ही मिल पाया है। कई पात्र परिवारों के नाम लिस्ट में नहीं हैं। कहीं आवास मिला, तो बिजली पानी नहीं। कहीं शौचालय बना, तो पानी की व्यवस्था नहीं।
भेदभाव अब भी ज़िंदा
बस्ती के लोगों को अब भी सरकारी कार्यालयों, स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों में उनकी जाति के आधार पर व्यवहार झेलना पड़ता है। कई बार फॉर्म भरते समय या राशन लेते वक्त उनका उपनाम पूछकर उन्हें अपमानित किया जाता है।
रोज़गार का संकट
इन बस्तियों के अधिकतर लोग असंगठित मजदूरी, सफाई कर्मी, ठेला चलाने या घरेलू नौकरियों में लगे हैं। युवा शिक्षित हैं लेकिन जाति और इलाका जानने के बाद उन्हें नौकरियों से वंचित कर दिया जाता है। सरकार की कौशल योजनाएं भी इन्हें छू नहीं पा रही हैं।
महिलाओं पर दोहरी मार
बस्तियों की महिलाएं घर और बाहर दोनों जगह मज़दूरी करती हैं। पर उनके साथ छेड़छाड़, घरेलू हिंसा और उपेक्षा आम बात है। उनकी ज़िंदगी में ना सुरक्षा है, ना आवाज़। कई लड़कियां बाल विवाह या घरेलू कामों में झोंक दी जाती हैं।
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