भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए रही है संवाद और समावेश की परंपरा
भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए रही है संवाद और समावेश की परंपरा भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए रही है संवाद और समावेश की परंपरा भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए रही है...

भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए रही है संवाद और समावेश की परंपरा भारतीय ज्ञान परंपरा को पारिभाषित करती है भारतीय दर्शन, शास्त्र, लोक परंपराएं, संगीत और रंगमंच ये सभी हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर दुनिया में शांति बनाए रखना है तो समाधान के लिए संवाद और समावेश की परंपरा को रखना होगा कायम नव नालंदा महाविहार में भारत के ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाएं विषयक पर दो दिवसीय संगोष्ठी में बोले शिक्षाविद फोटो : नव नालंदा : नव नालंदा महाविहार में भारत के ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाएं विषयक पर दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल शिक्षाविद। बिहारशरीफ, निज संवाददाता। भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए हमेशा से संवाद और समावेश की परंपरा रही है। भारतीय ज्ञान परंपरा भारतीय दर्शन, शास्त्र, लोक परंपराएं, संगीत और रंगमंच को पारिभाषित करती है। ये सभी हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। दुनिया में शांति बनाए रखना है, तो समाधान के लिए संवाद और समावेश की परंपरा को कायम रखना होगा। नव नालंदा महाविहार में भारत के ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाएं विषयक पर दो दिवसीय संगोष्ठी में कुलपति प्रो. सिद्धार्थ सिंह ने कहा कि भारतीय दर्शन, शास्त्र, लोक परंपराएं, संगीत, रंगमंच, शिल्प और आदिवासी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां ये सभी मिलकर उस व्यापक भारतीय ज्ञान परंपरा को परिभाषित करते हैं, जिसे एक स्वतंत्र, समग्र और संरचित अनुशासन के रूप में स्थापित करना समय की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि किसी भी प्रकार के विवाद और संघर्ष को समझने के लिए कॉनफ्लिक्ट मैपिंग यानि संघर्ष मानचित्रण की पद्धति अत्यंत उपयोगी है। इसमें ट्रैक्टेबल (नियंत्रित या अपने अनुरुप ढालना) और इंट्रैक्टेबल (अनियंत्रित) जैसे विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया। उदाहरण के रूप में उन्होंने इस्राइल-फिलिस्तीन विवाद का हवाला दिया, जो ऐतिहासिक, धार्मिक और भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत जटिल है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा फॉर पीस (शांति संदेश) में वर्णित तीन प्रमुख अवधारणाओं पीसमेकिंग यानि शांति बनाना, पीसकीपिंग यानि शांति बनाए रखना और पीसबिल्डिंग यानि शांति निर्माण का उल्लेख करते हुए कहा कि भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए संवाद और समावेश की परंपरा हमेशा से रही है। शांति बनाए रखना का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं है। हर हाल में संवाद को सर्वोपरी मानना चाहिए। अधां और हाथी की कहानी से वस्तुस्थिति को रखा सबके सामने : कुलपति ने ‘अंधों और हाथी की प्रसिद्ध कथा के माध्यम से वस्तुस्थिति को सबके सामने रखा। जिसमें अंधों की टोलियों ने हाथी की व्याख्या अपने अपने अनुभवों के आधार पर की थी। उन्होंने बताया कि कैसे विभिन्न दार्शनिक परंपराएं एक ही सत्य के अंश को अपनी दृष्टि से देखती हैं। उन्होंने बौद्ध, जैन और सूफी परंपराओं में इस दृष्टांत के विभिन्न संस्करणों का हवाला दिया। कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा ने कभी एकमात्र सत्य के आग्रह पर बल नहीं दिया, बल्कि अनेकांतवाद और स्यादवाद (जैन धर्म का सिद्धांत जिसमें किसी वस्तु के गुणों को समझने का तरीका सापेक्ष होता है) जैसी अवधारणाओं के माध्यम से बहुलता को स्वीकार किया है। भारतीय संस्कृति की छाप विश्व के कोने-कोने में : उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति की छाप विश्व के कोने-कोने में है। जापान में हिन्दू देवी-देवताओं की उपस्थिति हो, अजरबैजान की राजधानी बाकू का प्राचीन हिंदू मंदिर हो या हंगरी के प्राचीन शहरों में बौद्ध प्रभाव के दावे की बात हो, हर जगह हमारी संस्कृति की छाप दिखती है। भारतीय शब्द और ध्वनियां जर्मन और जापानी भाषाओं तक में दिखती हैं। केवल सांस्कृतिक गौरवगान से आगे बढ़कर अब आवश्यकता है कि इस समृद्ध ज्ञान परंपरा को अकादमिक और वैश्विक स्तर पर एक संगठित अनुशासन के रूप में फिर से प्रतिष्ठित किया जाए। संगोष्ठी में प्रो. सर्वेश सिंह, प्रो. श्रीकांत सिंह, प्रो. विश्वजीत कुमार, प्रो. राणा पुरुषोत्तम कुमार सिंह, डॉ. चक्रधर प्रधान, डॉ. मनोज कुमार मौर्य, डॉ. अर्चना सिंह, प्रो. अनुराग यादव व अन्य ने अपने विचार व्यक्त किए।
लेटेस्ट Hindi News , बॉलीवुड न्यूज, बिजनेस न्यूज, टेक , ऑटो, करियर , और राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।