Qazi and Sharia courts not recognised under Indian law says Supreme Court काजी और शरिया अदालत को भारतीय कानून के तहत मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, India Hindi News - Hindustan
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काजी और शरिया अदालत को भारतीय कानून के तहत मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ में 2014 की मिसाल का उल्लेख किया जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कोई कानूनी मंजूरी नहीं है।

Nisarg Dixit वार्ताTue, 29 April 2025 05:48 AM
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काजी और शरिया अदालत को भारतीय कानून के तहत मान्यता नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा

उच्च्तम न्यायालय ने सोमवार को दोहराया कि 'काजी अदालत', 'दारुल कजा', 'शरिया अदालत' या इसी तरह के किसी भी निकाय को भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है और उनके फैसले कानूनी रूप से लागू नहीं होते हैं।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ में 2014 की मिसाल का उल्लेख किया जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कोई कानूनी मंजूरी नहीं है।

न्यायालय एक महिला द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रहा था। याचिका में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा एक पारिवारिक न्यायालय के फैसले की पुष्टि को चुनौती दी गई थी जिसमें उसे भरण-पोषण देने से इनकार किया गया था। पारिवारिक न्यायालय ने अपने निष्कर्षों को आंशिक रूप से, 'काजी कोर्ट' के समक्ष प्रस्तुत किए गए समझौते पर आधारित किया था।

न्यायमूर्ति अमानुल्लाह ने टिप्पणी की , 'काजी की अदालत', 'दारुल कजा' या 'शरिया अदालत' के रूप में पहचाने जाने वाले निकायों का, चाहे उनका लेबल कुछ भी हो, कोई कानूनी दर्जा नहीं है। जैसा कि विश्व लोचन मदन में पहले कहा गया था, उनके द्वारा जारी कोई भी आदेश या निर्देश बाध्यकारी नहीं है न ही इसे बलपूर्वक लागू किया जा सकता है। ऐसे निर्णय केवल तभी प्रासंगिक हो सकते हैं जब पक्षकार स्वेच्छा से उन्हें स्वीकार करें और तब भी केवल तब तक जब तक कि वे किसी मौजूदा कानून का उल्लंघन न करें।'

इस मामले में अपीलकर्ता-पत्नी और प्रतिवादी-पति दोनों ने इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन करते हुए 24 सितंबर, 2002 को अपना दूसरा विवाह किया। 2005 में पति ने भोपाल में 'काजी की अदालत' के समक्ष तलाक की कार्रवाई शुरू की जिसे 22 नवंबर, 2005 को समझौता होने के बाद खारिज कर दिया गया।

वर्ष 2008 में हालांकि पति ने फिर से 'दारुल कजा' के समक्ष तलाक के लिए अर्जी दी। लगभग उसी समय पत्नी ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए पारिवारिक न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। बाद में 2009 में पति ने 'दारुल कजा' द्वारा दिए गए तलाक के बाद तलाकनामा औपचारिक रूप से तैयार कर लिया।

पारिवारिक न्यायालय ने पत्नी की भरण-पोषण याचिका को खारिज कर दिया। यह निष्कर्ष निकालते हुए कि वह स्वयं वैवाहिक विवाद और उसके बाद के अलगाव का कारण थी और पति ने उसे नहीं छोड़ा था। न्यायालय ने यह भी तर्क दिया कि चूंकि यह दोनों पक्षों के लिए दूसरी शादी थी इसलिए दहेज की मांग की कोई संभावना नहीं थी।

शीर्ष न्यायालय ने इस तर्क को दृढ़ता से अस्वीकार करते हुए कहा: 'यह धारणा कि दूसरी शादी से दहेज की मांग का जोखिम अपने आप खत्म हो जाता है, काल्पनिक और कानूनी आधारहीन दोनों है। इस तरह के तर्क का न्यायिक निष्कर्षों में कोई स्थान नहीं है।'

शीर्ष न्यायालय ने पारिवारिक न्यायालय द्वारा समझौता विलेख पर भरोसा करने को भी खारिज कर दिया। न्यायालय ने पाया कि 2005 में दर्ज किए गए समझौते में अपीलकर्ता-पत्नी द्वारा गलती स्वीकार करने का कोई उल्लेख नहीं था। इसके बजाय यह केवल पक्षों के शांतिपूर्ण तरीके से साथ रहने के आपसी निर्णय को दर्शाता है।

शीर्ष न्यायालय ने पारिवारिक अदालत के फैसले को अस्थायी बताते हुए कहा, 'अपीलकर्ता के दावे को खारिज करना समझौते की गलत व्याख्या पर आधारित था और इसमें कोई ठोस आधार नहीं है।'

इसके परिणामस्वरूप न्यायालय ने प्रतिवादी-पति को अपीलकर्ता-पत्नी को 4,000 रुपये का मासिक भरण-पोषण देने का आदेश दिया जो उस तारीख से प्रभावी होगा जिस दिन से उसने सहायता मांगने के लिए अपनी मूल याचिका दायर की थी।