पराली से बनेगी सड़क! अब किसान कमाएंगे लाखों रुपये, जानिए सरकार का ये मास्टर प्लान
नितिन गडकरी की एक क्रांतिकारी योजना से भारत का प्रदूषण भविष्य बदल सकता है। जी हां, क्योंकि अब हर साल जलने वाली पराली से सड़क बनने की योजना सामने आई है। इससे अब किसान लाखों रुपये तक कमा पाएंगे।

हर साल सर्दियों में जब दिल्ली-NCR की हवा धुंध से भर जाती है, तो पराली जलाना फिर से सुर्खियों में आ जाता है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान खेतों में फसल कटाई के बाद बचे अवशेष यानी पराली को जलाकर खेत साफ करते हैं। यह तरीका भले ही सस्ता और तेज हो, लेकिन इससे उठता धुआं राजधानी की हवा को जहर बना देता है। अब इस गंभीर समस्या को हल करने के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक अनोखी और नई योजना पेश की है, जिसका नाम “पराली से बनेंगी सड़कें” हैं।
पराली से बनेगा बायो-बिटुमेन
गडकरी की इस योजना का केंद्र बिंदु बायो-बिटुमेन है, जो पराली और अन्य कृषि अपशिष्ट से तैयार किया जाता है। आमतौर पर सड़कें बनाने में पेट्रोलियम से बनने वाला बिटुमेन उपयोग होता है, जिसकी भारत हर साल करीब 30,000 करोड़ की आयात करता है।
लेकिन अब यही पराली, जो पहले जलकर हवा को प्रदूषित करती थी, सड़क निर्माण की मुख्य सामग्री बन सकती है। इसमें लिग्निन नाम के पौधों से प्राप्त प्राकृतिक पॉलिमर मिलाया जाएगा, जिससे पर्यावरण को नुकसान भी नहीं होगा और भारत का आयात बिल भी कम होगा।
किसानों को मिलेगा मुनाफा, मिलेगा नया रोजगार
इस योजना का एक और बड़ा फायदा, किसानों को सीधा लाभ है। पहले जो पराली फूंक दी जाती थी, अब उसे बेचने पर 6,000 प्रति एकड़ तक की कमाई हो सकती है। पहले किसान सिर्फ 2,500 प्रति टन पराली बेचते थे, लेकिन अब ये एक बड़ी सप्लाई चेन का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
इस बायो-बिटुमेन के साथ-साथ बायो-CNG प्लांट्स भी लग रहे हैं, जो पराली को फ्यूल में बदल रहे हैं। इससे न सिर्फ किसानों को पैसा मिलेगा, बल्कि गांवों में मशीन ऑपरेटर, ट्रांसपोर्टेशन, प्रोसेसिंग आदि में रोजगार भी पैदा होगा।
प्रदूषण में कमी, सड़कों की मजबूती में बढ़ोतरी
पायलट प्रोजेक्ट्स पहले ही शुरू हो चुके हैं। जैसे कि शामली से मुजफ्फरनगर के बीच सड़क बनी। इन सड़कों ने मजबूती के मानकों को भी पास किया है। इससे यह साबित होता है कि बायो-बिटुमेन सिर्फ टिकाऊ नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी व्यावहारिक है। इसके इस्तेमाल से 15-20% तक वायु प्रदूषण में गिरावट हो सकती है। खासकर उन इलाकों में जहां पराली जलाने की समस्या विकराल है।
कुछ चुनौतियां भी हैं?
जहां एक तरफ ये योजना बेहद उपयोगी लगती है, वहीं कुछ व्यावहारिक समस्याएं भी हैं। पराली इकट्ठा करने की समयसीमा सिर्फ 20 दिन होती है। छोटे किसानों के पास अभी भी हैप्पी सीडर या बैलर मशीनें नहीं हैं, या उनके इस्तेमाल की जानकारी नहीं है।
नीतिगत मंजूरियों में देरी भी एक बड़ी बाधा है। गडकरी ने हाल ही में पेट्रोलियम मंत्रालय से बायो-बिटुमेन को जल्दी मंजूरी देने की मांग की है।
भविष्य की सड़कें – कचरे से कंक्रीट तक
गडकरी की सोच केवल पराली तक सीमित नहीं है। पहले ही दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे और द्वारका एक्सप्रेसवे जैसे प्रोजेक्ट्स में प्लास्टिक कचरे से बनी सड़कों का प्रयोग किया जा चुका है। अब जब पराली, प्लास्टिक और शहरी कचरा भी सड़कों का हिस्सा बन रहा है, तो भारत एक नए युग की ओर बढ़ रहा है। जहां कचरा भी 'वेल्थ' बन सकता है, जैसा कि गडकरी ने कहा – "वेस्ट इज वेल्थ इफ यू हैव द राइट विजन।"
क्या किसान इस बदलाव के लिए तैयार हैं?
इस योजना की सफलता इस पर भी निर्भर करती है कि किसान इसमें कितनी रुचि लेते हैं। कई राज्य 'स्टबल बैंक' जैसी योजनाएं चला रहे हैं, ताकि किसान पराली जमा करके बेच सकें। लेकिन, जमीनी स्तर पर अभी भी जागरूकता और संसाधनों की कमी है।
एक समाधान, अनेक फायदे
अगर यह योजना सफल होती है, तो भारत न केवल प्रदूषण कम करेगा, बल्कि पराली जलाने की समस्या खत्म होगी। किसानों को कमाई का नया जरिया मिलेगा।
देश का आयात बिल घटेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार बढ़ेगा और हमें पर्यावरण के अनुकूल, मजबूत सड़कें मिलेंगी। अब पराली सिर्फ धुआं नहीं उड़ाएगी, वो देश का भविष्य बनाएगी।
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