Seminar on Jyotiba Phule and Phanishwar Nath Renu s Legacy Held at Darbhanga University रेणु के साहित्य में पीड़ा का एहसास : प्रो. उमेश, Darbhanga Hindi News - Hindustan
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रेणु के साहित्य में पीड़ा का एहसास : प्रो. उमेश

दरभंगा में लनामिवि के पीजी हिंदी विभाग में ज्योतिबा फुले जयंती और फणीश्वरनाथ रेणु की स्मृति दिवस पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। प्रो. उमेश कुमार उत्पल ने कहा कि रेणु का साहित्य ग्रामीण संस्कृति का...

Newswrap हिन्दुस्तान, दरभंगाFri, 11 April 2025 10:26 PM
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रेणु के साहित्य में पीड़ा का एहसास : प्रो. उमेश

दरभंगा। महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले जयंती एवं सुप्रसिद्ध आंचलिक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की स्मृति दिवस पर लनामिवि के पीजी हिंदी विभाग में शुक्रवार को संगोष्ठी का आयोजन किया गया। ‘भारतीय नवजागरण के अग्रदूत ज्योतिबा फुले की विरासत तथा ‘ग्रामीण संस्कृति और रेणु का साहित्य विषय पर आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार उत्पल ने की। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. उमेश ने कहा कि रेणु के साहित्य में पीड़ा का एहसास है। इस पीड़ा का एहसास उन्हें ग्रामीण जीवन से मिला था, जो उनकी रचनाओं में झलकता है। वस्तुत: रेणु का साहित्य ग्रामीण संस्कृतियों का संग्रहालय है। यदि हमारा समाज मैला हो रहा है तो उसे बचाने की आवश्यकता है। रेणु ने इसी उद्देश्य से ‘मैला आंचल की रचना की थी। मैला आंचल के प्रकाशन की कहानी अत्यंत पीड़ादायक है। इस उपन्यास के प्रकाशन के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखने पड़े थे। सही समय पर नलिन विलोचन शर्मा की निगाह इस रचना पर गई और उन्होंने एक बेहद अर्थपूर्ण समीक्षा लिखी। इसके बाद मैला आंचल प्रकाशित हो सका। इसके बाद तो रातोंरात रेणु प्रसिद्ध हो गए। सच पूछा जाए तो हिन्दी में आंचलिकता का प्रतिफलन रेणु के साहित्य में ही हुआ।

उन्होंने कहा कि रेणु के साथ-साथ ज्योतिबा फुले को याद करने के अपने अलग मायने हैं। ज्योतिबा का व्यक्तित्व क्रांति लहर की उपज रही। स्त्री शिक्षा व समाज सुधार की दिशा में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें हमेशा आदरपूर्वक याद किया जाएगा। विभागीय शिक्षक डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि ज्योतिबा फुले और रेणु में एक वैचारिक अंतर्संबंध है। ज्योतिबा 1827 में पैदा हुए, जबकि रेणु नागार्जुन के 10-11 वर्ष बाद 1921 में पैदा हुए। लेकिन मैं समझता हूं कि 19वीं सदी में फुले जी ने सामाजिक क्रांति की जो अलख जलाई थी, रेणु-साहित्य की पूरी विचारभूमि वही है। वस्तुत: फुले और रेणु दोनों ही समतामूलक समाज बनाना चाहते थे। यही इनका वैचारिक अंतर्संबंध है।

प्राचार्य डॉ. श्याम भास्कर ने कहा कि ज्योतिबा फुले ने सामाजिक प्रगति की दिशा में बड़ी लकीर खींची है। स्त्री शिक्षा का जब चलन नहीं था उस दौर में अपनी पत्नी को शिक्षिका के रूप में तैयार कर स्त्री शिक्षा के लिए आंदोलन चलाया। वहीं, रेणु साहित्य की जहां तक बात है तो वह अपने ढंग के अनूठे किस्सागो हैं। रेणु जीवन, समाज और लोक संस्कृति को बढ़ावा देने वाले लेखक हैं। उन पर आंचलिकता का जो ठप्पा लगाया गया था, उसे उन्होंने अपने जुलूस उपन्यास से तोड़ा। रेणु प्रेम से ज्यादा करुणा पर बल देते हैं। उनकी सभी कहानियों में करुणा भरी हुई है।

डॉ. मंजरी खरे ने कहा कि ज्योतिबा फुले समाज सुधार की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से करते हैं। जिस दौर में स्त्री शिक्षा के लिए वह आंदोलन चला रहे थे, उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी को शिक्षा दी और बतौर शिक्षिका उन्हें तैयार किया। सावित्री बाई फुले ने भी जीवनपर्यंत दाएं हाथ की तरह उनका साथ दिया। यह ठीक ही कहा जाता है कि आज फुले दंपती की वजह से महिलाएं इस मुकाम पर खड़ी हैं। रेणु का सौंदर्यशास्त्र अप्रतिम है, उनकी जनसंपृक्ति, लोक संस्कृति और लोकतत्व की पहचान की अद्भुत दृष्टि उन्हें अन्य साहित्यकारों से विशिष्ट बनाती है। संगोष्ठी का संचालन शोधार्थी कंचन रजक तथा धन्यवाद ज्ञापन समीर ने किया।

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