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क्या है पाक सेना की 'ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स' डॉक्ट्रिन, जिसका एक जख्म पहलगाम हमला

1947-48, 1965 और फिर 1971 में हारने के बाद पाक सेना ने मान लिया था कि सीधे युद्ध में भारत से जीतना मुश्किल है। ऐसे में उसने छद्म युद्ध शुरू किया, जिसे सरल भाषा में पीठ पीछे वार भी कहा जाता है। इसके तहत उसने आतंकवाद को एक नीति के रूप में स्वीकार किया। यही ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स का हिस्सा है।

Surya Prakash लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीTue, 13 May 2025 12:04 PM
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क्या है पाक सेना की 'ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स' डॉक्ट्रिन, जिसका एक जख्म पहलगाम हमला

पाकिस्तान के साथ भारत का तनाव उसके जन्म के साथ ही है। इस्लाम के नाम पर अलग हुआ मुल्क हमेशा खुद को भारत से अलग दिखाने की जद्दोजहद में ही रहा है, जबकि दोनों देशों का एक साझा इतिहास और संस्कृति है। पाकिस्तान का खुद को अ-भारतीय दिखाने का नैरेटिव भी उसके यहां कट्टरता का एक कारण है। भारत से अलग दिखाने के लिए वह कट्टर इस्लाम पर जोर देता रहा है और अपनी जड़ें तुर्की, सऊदी अरब जैसे मुल्कों से जोड़ता है, जिनकी संस्कृति, भाषा सब कुछ अलग है। फिर भारत की बात करें तो पाकिस्तानी शासक जब भी मुसीबत में आते हैं तो भारत से तनाव बढ़ाने की फिराक में रहते हैं। हाल ही में पहलगाम अटैक और फिर उसके बाद जंग जैसे हालात उसकी ही एक कड़ी हैं।

इस सबकी शुरुआत 1971 की जंग के बाद हुई थी। 1947-48, 1965 और फिर 1971 में हारने के बाद पाक सेना ने मान लिया था कि सीधे युद्ध में भारत से जीतना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उसने छद्म युद्ध शुरू किया, जिसे सरल भाषा में पीठ पीछे वार भी कहा जाता है। इसके तहत उसने आतंकवाद को एक नीति के रूप में स्वीकार किया। कश्मीर से लेकर मुंबई तक के हमलों में यही नीति वजह बनी थी। इस नीति का बाकायदा एक नाम है- ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स। पाकिस्तान की सेना इस नीति पर ही काम करती है। जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट करके आए जनरल जिया उल हक ने ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स की बात की थी। इसका अर्थ था- भारत को एक हजार जगह पर जख्म देना।

कैसे जिया उल हक ने सेना को इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर धकेला

यह नीति जुल्फिकार अली भुट्टो का 1977 में तख्तापलट करने के बाद जिया उल हक लेकर आए। मेजर जनरल ध्रुव कटोच अपने एक रिसर्च पेपर 'Combatting Cross-Border Terrorism: Need for a Doctrinal Approach' में जिया उल हक की इस नीति को लेकर लिखते हैं, 'पाकिस्तान को यह आभास हो गया था कि सैन्य ताकत के बल पर भारत से कश्मीर नहीं लिया जा सकता। 1971 में पाकिस्तान के टूट जाने के बाद उसे यह भी लगा कि देश को जोड़ने के लिए भी इस्लाम को एक नीति के तौर पर लाना होगा। यहीं से पाकिस्तान में इस्लामिक वारफेयर की नीति आरंभ हुई। इसके तहत ही जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के जरिए हजार जख्म देने की नीति को प्रोत्साहन मिला। सीमा पार आतंकवाद 1980 के दशक में प्रारंभ हुआ था। पाकिस्तान ने सशस्त्र आतंकियों को सीमा पार भेजना शुरू किया। सवाल उठे तो यह भी कहता रहा कि यह कश्मीरी लोगों का स्वतंत्रता संग्राम है, इसमें हमारा कोई हाथ नहीं है, सिर्फ नैतिक समर्थन देने के। किंतु सत्य तब सामने आ गया, जब आईएसआई के एक डीजी ने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में बताया कि हम कश्मीर में इस तरह की गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे हैं।'

इन 11 सालों में जिया उल हक के दौर में खूब बढ़ा आतंकवाद

दरअसल जनरल जिया उल हक का 1977 से 1988 तक का कार्यकाल पाकिस्तान में इस्लामिक चरमपंथ के उभार का था। यह इस्लामिक चरमपंथ युद्ध नीति में भी हावी हुआ। 1987 में दावत-उल-इरशाद मरकज की स्थापना हाफिज सईद और जफर इकबाल ने की। दोनों लाहौर की एक इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। इसके अलावा अब्दुल्ला आजम नाम का शख्स भी इसका संस्थापक था, जो अरब मूल का था और इस्लामाबाद में रहता था। यहां यह उल्लेखनीय है कि यह वही हाफिज सईद है, जिसने 2008 में मुंबई में भीषण आतंकी हमले की साजिश रची थी। इनमें से अब्दुल्ला आजम की दो साल बाद ही पेशावर में एक बम धमाके में मौत हो गई थी।

इसी नीति के तहत बना हाफिज सईद का जमात उद दावा और लश्कर

इस दावत-उल-इरशाद मरकज को ही बाद में जमात-उद-दावा नाम दिया गया, जो आज भी पाकिस्तान में सक्रिय है। यह उग्रवादी संगठन सुन्नी बहाबी मत को बढ़ावा देता है और इसका लक्ष्य इस्लाम की खिलाफत की स्थापना करना है, जिसके तहत उन सभी क्षेत्रों को इस्लामिक शासन के अंतर्गत लाना है, जिन पर कभी मुसलमान शासकों का राज था। उसके इस इस्लामिक साम्राज्य के स्वप्न में भारत भी आता है। इस प्रकार जुल्फिकार अली भुट्टो और जिया उल हक के दौर से शुरू हुई नीति इस्लामिक वारफेयर में तब्दील होती गई। यह नीति और विस्तार लेती गई। व्यापक स्तर पर फंडिंग के साथ जमात-उद-दावा जिहाद का प्रचार करता है और उसके तहत दी जाने वाली शिक्षाएं आपत्तिजनक होती हैं।

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आखिर लश्कर-ए-तैयबा को पाक सेना ने क्यों बढ़ावा दिया

यही नहीं इसी दावत-उल-इरशाद की सशस्त्र विंग के रूप में लश्कर-ए-तैयबा जैसे खूंखार आतंकी संगठन का गठन हुआ। इसका इस्तेमाल पाकिस्तान ने समूचे जम्मू-कश्मीर एवं भारत के अन्य हिस्सों में आतंकवाद फैलाने के लिए किया है। इसे पाक सरकार की ओर से अघोषित तौर पर फंडिंग होती रही है और आईएसआई का साथ उसके पास रहा है। भारत की ओर से आतंक-रोधी अभियान को मजबूत करने और अमेरिका जैसे देशों के साथ आने से भले ही कुछ प्रतिरोध हुआ है, किंतु पाकिस्तान की नीति में कोई बदलाव नहीं है। लश्कर-ए-तैयबा के अलावा कुछ और जिहादी संगठन बने, जिन्हें आईएसआई और पाक सरकार से मदद मिलती रही है।