Hindustan Special: यूपी का ऐसा गांव जहां हर घर में फौजी, वर्ल्ड वार से लेकर कारगिल तक दी कुर्बानी
यूपी में एक गांव ऐसा भी है जहां के हर घर में फौजी है। यहां के युवाओं ने यूरोप का प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर आजादी के महासंग्राम, भारत चीन युद्ध या भारत-पाकिस्तान युद्ध समेत अन्य युद्धों में अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं।

यूपी के बुलंदशहर में एक गांव ऐसा भी है जहां के हर घर में फौजी है। हम बात कर रहे हैं बीबीनगर क्षेत्र के गांव सैदपुर की। यहां के युवाओं ने यूरोप का प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर आजादी के महासंग्राम, भारत चीन युद्ध या भारत-पाकिस्तान युद्ध समेत अन्य युद्धों में अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं। आज भी सैदपुर की माटी में पैदा हुए वीर देश की विभिन्न सीमाओं की रक्षा के लिए जांबाज पैदा करने से पीछे नहीं हैं। इसीलिए सैदपुर को सैनिकों का गांव कहा जाता है।
बुलंदशहर में मुख्यालय से लगभग 40 किमी दूर बीबीनगर ब्लॉक का गांव सैदपुर जो किसी भी परिचय का मोहताज नहीं है। यहां के युवाओं के रग-रग में देश सेवा का खून दौड़ता है। सैदपुर की माटी में आज भी मां वीर सैनिकों को जन्म देकर देश की विभिन्न सीमाओं की रक्षा के लिए भेजती है। यहां बचपन से ही देश सेवा करने के लिए फौज में जाने का लक्ष्य बनाकर तैयारी की जाती है।
यहां जांबाजों ने शौर्य और साहस के मेडल हासिल
अतीत पर नजर डालें तो वर्ष 1914 के विश्वयुद्ध में सैदपुर से 155 सैनिक जर्मनी के लिए रवाना हुए थे, जिनमें से 29 सैनिकों ने अपना व देश का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित कराकर वीरगति प्राप्त की थी। जबकि लगभग 100 सैनिक युद्ध जितने के बाद विदेश में ही रहने लगे। सैदपुर के जाबांजों ने जिस जगह अपना डेरा डाला उस जगह का नाम जाटलैंड रख दिया है। वर्ष 1962 का भारत चीन युद्ध हो या 1965 या 1971 का पाकिस्तान युद्ध सभी में सैदपुर के जाबांजों ने दो दो हाथ किए हैं और अपने प्राणों की आहुति भी दी है। 1965 की लड़ाई में सैदपुर के सुखबीर सिंह सिरोही को सम्मानित किया गया था। 1971 के युद्ध में विजय सिरोही व मोहन सिरोही एक ही दिन शहीद हुए थे। सैदपुर के आंचल में शौर्य व साहस के दर्जनों मेडल हासिल हैं। कारगिल युद्ध में सैदपुर के लांसनायक सुरेंद्र सिंह ने विजय पताका फहराते हुए पाक सेना के दांत खट्टे किए व वीरगति को प्राप्त हुए।
अस्थि कलश लेकर पहुंचीं थी इंदिरा गांधी
भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान शहादत देने वाले लेफ्टिनेंट सुखबीर सिंह सिरोही का अस्थि कलश लेकर तत्कालीन केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी स्वयं कस्बा सैदपुर पहुंची थी। सैदपुर गांव के मध्य में स्थित शहीद स्तंभ आज भी गौरव गाथा का बयान करता है। शहीद स्तंभ पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, बाबू बनारसी दास, मुलायम सिंह यादव व चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भी आ चुके हैं।
सैदपुर के जाबांजों ने पाक सेना के किए थे दांत खट्टे
वर्ष 1999 में भारत पर बुरी नजर रखने का खामियाजा भी पड़ोसी मुल्क उठा चुका है। भारत के खिलाफ रची गई हर साजिश का भारतीय सेना ने उसे मुंह तोड़ जवाब दिया है। कारगिल युद्ध को आज भारत विजय दिवस के रूप में मानता है और युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए शहीदों के सम्मान में नतमस्तक होता है। इस युद्ध में सैदपुर के जाबांजों ने अपनी अहम भूमिका अदा की थी।
पराक्रम और बहादुरी का लोहा मनवाया
बीबीनगर ब्लॉक के शहीद ग्राम के नाम से विख्यात सैदपुर ने सेना को इतने रत्न दिए हैं, जिन्हें गिनना मुश्किल काम है। भारत की तीनों सेनाओं में सैदपुर के जाबांजों ने अपनी कार्यशैली, पराक्रम व बहादुरी का लोहा मनवाया है।
देश की आजादी से पहले भी न्योछावर किए हैं प्राण
रणबांकुरों का खून खोलता था। देश पर मर मिटने की कसम खाएं योद्धाओं ने प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर कारगिल युद्ध तक यहां के न जाने कितने वीरों ने अपने प्राणों की आहुतियां दीं। कारगिल युद्ध में सैदपुर के शहीद सुरेंद्र सिंह व खैरपुर के शहीद ओमप्रकाश सिंह ने अपने प्राणों की आहुति देकर एक बार फिर क्षेत्र का सीना चौड़ा कर दिया। सुरेंद्र सिंह ने कारगिल युद्ध में विजय पताका फहराने की कसम खाकर पाक सेना को छटी का दूध याद दिलाया था जबकि शहीद ओमप्रकाश सिंह ने तोलोलिंग की पहाड़ी से दुश्मनों को खदेड़ कर वीरगति प्राप्त की थी।
सैदपुर स्थित मिलिट्री हीरोज मेमोरियल इंटर कॉलेज के मुख्य द्वार पर शहीद सुरेंद्र सिंह की व ग्राम खैरपुर में शहीद ओमप्रकाश सिंह की प्रतिमा लगी है। सरकार की तरफ से दोनों ही परिवारों को विभिन्न सहायता मुहैया कराई गई थी। दोनों ही परिवार अपनों से बिछड़ने का दंश झेलते हुए शहीदों के परिजन कहलवाने से गौरवान्वित महसूस करते हैं।