Rural Laborers Face Employment Crisis 60 Lack Regular Work बोले जमुई : मशीनों ने खेत संभाल लिया, शहर वाले हमें बुलाते ही नहीं, Bhagalpur Hindi News - Hindustan
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बोले जमुई : मशीनों ने खेत संभाल लिया, शहर वाले हमें बुलाते ही नहीं

ग्रामीण मजदूरों के लिए रोज़ काम की चिंता बनी रहती है। जमुई के अमरथ गांव में लगभग 9000 लोग दैनिक मजदूरी और खेती पर निर्भर हैं, लेकिन महीने में केवल 15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है। कई मजदूर बड़े शहरों...

Newswrap हिन्दुस्तान, भागलपुरSat, 10 May 2025 10:19 PM
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बोले जमुई : मशीनों ने खेत संभाल लिया, शहर वाले हमें बुलाते ही नहीं

ग्रामीण मजदूरों को हर दिन रोजगार की चिंता सताती है। रोज काम नहीं मिलता है। इस कारण कई बार बड़े शहरों का रुख करते हैं। वहां भी ग्रामीण मजदूरों में से 60 फीसदी को भी नियमित काम नहीं मिल पाता। ऐसे में वे बिना कमाई के ही वापस लौटते हैं। घर-परिवार चलाने में मुश्किल होती है। जमुई बाजार से सटे अमरथ पंचायत के अमरथ गांव के नौ हजार लोगों की आजीविका का मुख्य साधन दैनिक मजदूरी व खेती ही है। काम मिला तो अच्छा, नहीं मिला चूल्हे-चौके पर भी आफत। यही उनकी जिंदगी की सच्चाई है। हिन्दुस्तान के साथ संवाद के दौरान जिले के दैनिक कामगारों ने अपनी परेशानी बताई।

60 फीसदी दैनिक कामगारों को भी नहीं मिलता नियमित काम

09 हजार लोगों के जीवन-यापन का मुख्य साधन है दैनिक मजदूरी

15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है महीने में, नहीं पूरा होता खर्च

अमरथ पंचायत की आबादी करीब 9000 है। जबकि मतदाता 6500 के आसपास हैं। इस पंचायत में 7 वार्ड हैं। यहां के ग्रामीण मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट मंडरा रहा है। वे रोजाना काम की तलाश में जमुई का रुख करते हैं। लेकिन अक्सर उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। जिस दिन काम मिला उस दिन उनके परिवार वाले खुश होते हैं। जिस दिन काम न मिलता है उस दिन उनके घर में उदासी छायी हुई रहती है। कभी खेतों में तो कभी किसी निर्माण स्थल पर, भवन निर्माण में तो कभी सड़कों की पीसीसी ढलाई में मेहनत-मजदूरी कर पेट पालने वाले इन ग्रामीणों के सामने अब रोजगार का संकट और गहराता जा रहा है। ग्रामीण मजदूर आशो यादव, पंकज यादव, योगेन्द्र महतो का कहना है कि रोज एक नई उम्मीद के साथ वे काम की तलाश में निकलते हैं। लेकिन महीने में मात्र 15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है। वे खेतों से लेकर भवन निर्माण तक में काम करने को तैयार रहते हैं। काम नहीं मिलना उनके लिए सबसे बड़ी परेशानी होती है। महंगाई बढ़ रही है, लेकिन आमदनी ठहर गई है। रोज काम नहीं मिलने से कमाई खत्म होती जा रही है।

शहरों में भी राहत नहीं, सबको नहीं मिलता काम :

काम की तलाश में ये मजदूर अक्सर शहरों की ओर रुख करते हैं। पटना, कोलकाता, दिल्ली, बेंगलुरु समेत बड़े शहरों में यहां के कई मजदूर अब भी रहकर मजदूरी करते हैं। लेकिन शहरों की चमक-दमक इनके लिए भी छलावा साबित होती है। स्थानीय लोगों का कहना था गांव से हर महीने सैकड़ों की संख्या में मजदूर शहर जाते हैं। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि उनमें से लगभग 60 फीसदी को नियमित काम नहीं मिल पाता। कुछ दिन बाद वे वापस गांव लौट आते हैं, खाली जेब और बुझी उम्मीदों के साथ। फिर से शुरू होती है उनकी जद्दोजहद और जीने के लिए काम की तलाश। शहर जाकर भी यदि उन्हें मेहनताना न मिले, तो वापस आने पर दोहरी मार झेलनी पड़ती है।

हम हर काम करने को हैं तैयार :

अमरथ गांव के रवि कुमार रोज सुबह पांच बजे उठते हैं। काम की तलाश के लिए खुद को तैयार करते हैं और बिंद बाजार पहुंचते हैं। इस उम्मीद में कि कोई ठेकेदार या किसान उन्हें काम दे देगा। हम खेतों में कटनी, बुआई से लेकर भवन निर्माण, मिट्टी भराई, बांस-लकड़ी का काम सब कुछ करने को तैयार रहते हैं। लेकिन, काम ही नहीं है तो मेहनत किस पर करें। प्रवीण कुमार बताते हैं कि महीने में औसतन बामुश्किल 15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है। बाकी दिन तो घर बैठकर ही रहना पड़ता है। कई ऐसे लोग हैं जिनके छोटे-छोटे बच्चे भी पूछते हैं, पापा, आज कुछ नहीं मिला? ऐसे में बच्चों की पढ़ाई लिखाई दूर की बात, उनके लिए पूरा भोजन जुटाना भी भारी पड़ता है। सुबह काम की तलाश में निकलते हैं, दोपहर होते-होते समझ में आता है कि आज भी कुछ हाथ नहीं लगेगा। गांवों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए कई योजनाएं चल रही हैं। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। यहां कुछ चुनिंदा लोगों को ही काम मिल पाता है। नीमनवादा गांव की रुक्मिणी देवी कहती हैं कि महिलाओं को तो गांवों में मेहनत मजदूरी पर भी लोग नहीं रखना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ती है।

ठेकेदारों की मनमानी और मजदूरों की मजबूरी :

जिन दिनों काम मिलता भी है, उन दिनों ये मजदूर ठेकेदारों की मनमानी और शोषण का शिकार होते हैं। दिनभर खून-पसीना बहाने के बाद शाम को बामुश्किल 300 से 350 रुपए ही मिल पाते हैं। जबकि न्यूनतम मजदूरी की दर इससे अधिक है। कम से कम 400 रुपए मिलने चाहिए। इन गांवों की गलियों में झांकिए तो आपको हर मोड़ पर एक बेचैनी, एक बेचारा-सा चेहरा मिलेगा, जो मेहनत करना चाहता है, लेकिन उसे मौका नहीं मिल रहा। गांव की चौपाल पर बैठे बुजुर्ग कहते हैं, पहले के जमाने में भी गरीबी थी। लेकिन, तब खेतों में कुछ न कुछ काम मिल ही जाता था। अब तो खेत भी मशीनें संभाल लेती हैं, और शहर वाले भी हमें नहीं बुलाते। राजेश यादव बताते हैं कि हमसे सुबह आठ बजे से शाम पांच बजे तक काम करवाया जाता है, लेकिन पैसे पूरे नहीं मिलते। अगर पूछो तो कहते हैं बहुत लोग लाइन में खड़े हैं, नहीं पसंद तो कल से मत आओ। यह असंतुलन और बेरोजगारी की स्थिति ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी असर डाल रही है। जब मजदूरों की जेब में पैसा नहीं होगा, तो बाजारों में खरीदारी नहीं होगी, जिससे छोटे दुकानदारों, सब्जीवालों और अन्य सेवा प्रदाताओं की हालत भी खस्ता हो रही है।

यांत्रीकरण से खेतों में नहीं मिल रही मजदूरी :

अमरथ के मजदूर कहते हैं कि पहले खेत खलिहानों में अधिकतर काम हाथों से होती थी। अब यांत्रीकरण का जमाना आ गया है। खेतों में ही धान काटकर अलग कर लिया जाता है। खलिहानों में लाया तक नहीं जाता है। रबी फसल में भी बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग धड़ल्ले से होने लगा है। ऐसे में काम लगातार खत्म होता जा रहा है। इस कारण गांवों में काम नहीं मिल पा रहा है। खेतों में काम करने वाले मजदूर भी अक्सर खाली हाथ बैठे रहते हैं। काम नहीं मिलने से कमाई एकदम से खत्म हो जाती है। खेतों में भी काम नहीं मिल पाता है। रोज बड़े शहरों या बाहर जाना भी इनके लिए संभव नहीं होता है। ऐसे में इन ग्रामीण मजदूरों को महाजनों से कर्ज लेना पड़ता है। कभी कभार तो यह कर्ज इतना बढ़ जाता है कि गांव से पलायन तक करना पड़ता है। दिल्ली पंजाब जैसे शहरों में दिन-रात काम कर वहां से पैसे भेजते हैं। तब जाकर बाल बच्चों के लिए दाना पानी का इंतजाम हो पाता है। यह स्थिति बताती है कि केवल योजनाएं बना देने से काम नहीं चलता, जरूरत है जमीनी स्तर पर उसे सही से क्रियान्वयन करने की। जब तक हर गांव के मजदूर को कम से कम माह में 25 दिन का काम नहीं मिलेगा, तब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कोई सुधार संभव नहीं है। इन ग्रामीण मजदूरों का काया कल्प नहीं हो सकता है।

महिलाएं भी हैं परेशान :

जमुई बाजार के आसपास के गांवों में काम करने वाली महिला मजदूरों की संख्या भी कम नहीं है। वे भी ईंट-गारा, मिट्टी भराई, खेतों में निराई-गुड़ाई जैसे काम करती हैं। लेकिन, उनकी हालत और भी बदतर है। उन्हें पुरुष मजदूरों से कम मजदूरी मिलती है, और कई बार शोषण का शिकार भी बनना पड़ता है। खेतों में निराई-गुड़ाई करने पर इन महिला मजदूरों को 200 से 250 सौ रुपए दिए जाते हैं। नीमनवादा गांव की पार्वती देवी बताती हैं कि हम दोनों पति-पत्नी मिलकर दिन में 600 से 700 रुपये कमा लेते थे। अब काम ही नहीं मिलता है, तो कमाई ही नहीं हो पाती है। इनके चार बच्चे हैं। कमाई नहीं होने से उनकी पढ़ाई और दवा का खर्च वह नहीं उठा पा रही हैं। योजनाओं का नहीं मिल पा रहा लाभ, ग्रामीण विकास से जुड़े कई योजनाएं सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना, गरीब कल्याण रोजगार अभियान व अन्य योजनाओं के चलने के बाद भी ग्रामीण मजदूरों को रोजाना काम नहीं मिल पा रहा है। ग्रामीण मजदूरों का आरोप है कि इन योजनाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल रहा है। इस कारण गांवों से पलायन अब भी जारी है।

शिकायत

1. ग्रामीण मजदूरों का कोई सटीक आंकड़ा नहीं है।

2. गांवों में लघु उद्योगों की कमी है, कहां काम करें

3. काम मिलने की अनिश्चितता बनी रहती है

4. ग्रामीण मजदूरों का कोई पहचान पत्र नहीं

5. ग्रामीण मजदूरों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं

सुझाव

1. सभी ग्रामीण मजदूरों का सर्वे कराकर सूची तैयार करनी चाहिए

2. गांवों में लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए

3. माह मे कम से कम 22 से 25 दिनों का काम निश्चित मिले

4. ग्रामीण मजदूरों की पहचान कर उन्हें पहचान पत्र मुहैया करायी जानी चाहिए

5. मजदूरों का पलायन रोकने के लिए गांवों में अंडा उत्पादन, बकरी पालन पर जोर होना चाहिए

सुनें हमारी पीड़ा

गांवों में लघु उद्यमियों को बढ़ावा देने से काम के अवसर बढ़ेंगे। छोटे उद्योगों को लगाए जाने से गांवों की आर्थिक विकास की गति भी तेज होगी। स्थानीय स्तर पर गांवों में ही मजदूरों को काम मिल सकेगा।

-अरविंद कुमार

इसके लिए सरकार व स्थानीय प्रशासन को अगरबत्ती निर्माण, जैविक खाद उत्पादन, बांस-लकड़ी का कुटीर उद्योग व अन्य छोटे-मोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

-बिट्टू कुमार

जिनके पास कुछ जमीन जायदाद नहीं है। वे पूरी तरह से मजदूरी पर ही निर्भर हैं। ऐसे लोगों की कोई सूची नहीं है। सर्वे करवाकर ऐसे ग्रामीण मजदूरों की सूची तैयार कर उनके हितों में योजनाएं बनाने की आवश्यकता है।

-गौरीशंकर कुमार

हर माह कम से कम 25 दिन काम मिलने से ही इन मजदूरों का भला होगा। खेत खलिहानों में अब पहले की तुलना में मजदूरी लगभग खत्म हो चुकी है। पहले कटनी के बाद महीनों दौनी चलती थी।

-ईश्वर यादव

खेतों में ही मशीनों से फसलों की कटाई व दौनी हो जाती है। इससे किसानों को फायदा हुआ है। लेकिन, मजदूरों के हाथों से मजदूरी छिन गयी है। ऐसे में अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

-जीवन कुमार

ग्रामीण मजदूरों को खुद का छोटा-सा कारोबार खड़ा करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए कई तरह की योजनाएं चलानी चाहिए। उनसे उन्हें जोड़ने का प्रयास जरूरी है।

-कुंदन कुमार

रोज काम नहीं मिलने से मजदूर हताश और निराश होते हैं। मेहनत करने वाले भी काम से महरूम हो रहे हैं। कभी कभार मजदूर खुद ही ठेका पर काम करने को विवश होते हैं।

-मदन यादव

सरकार को गौ-पालन, बकरी पालन की योजनाओं में तेजी लानी चाहिए। इसके लिए पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। इससे रोजगार का एक विकल्प भी उनके पास बना रहेगा।

-मैरूण यादव

ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे स्तर पर उद्योगों की स्थापना पर जोर दिया जाना चाहिए। अगरबत्ती निर्माण, जैविक खाद उत्पादन, बांस-लकड़ी का कुटीर उद्योग, पापड़ अचार बनाना व अन्य रोजगार के माध्यम से उन्हें मजदूरी उपलब्ध कराने पर पहल होनी चाहिए।

-मतलेश कुमार

ग्रामीण मजदूरों को बकरी पालन या गौ-पालन से जोड़कर उनके लिए आमदनी का विकल्प तैयार किया जाना चाहिए। इससे पलायन भी कम होगा। अपनी आवश्यकता और क्षमता के अनुसार रोजगार के विकल्पों से सरकार को जोड़ना चाहिए।

-राजाराम

काम न मिलने की स्थिति में भी कम से कम उनके परिवार का पेट चलता रहे। उन्हें इससे जोड़ा जाना चाहिए। सभी ग्रामीण मजदूरों के लिए काम की व्यवस्था होनी चाहिए। काम नहीं मिलने से परिवार पर आर्थिक संकट गहरा जाता है।

-राजेश कुमार

ग्रामीण मजदूरों की अब तक कोई अपनी पहचान नहीं है। जबकि वे हर तरह के काम करने में सक्षम हैं। फिर भी काम के लिए रोज भटकना पड़ता है। खेतों में अब पहले की तरह मजदूरों की मांग नहीं रही।

-सदादास यादव

गांवों में मजदूरों की मांग लगातार कम होती जा रही है। टेंपो या ई-रिक्शा देकर उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकते हैं। इन मजदूरों को अनुदानित दर पर वाहनों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

-सिंटू कुमार

गांवों में हमेशा काम मिलने की अनिश्चितता बनी रहती है। खेती बाड़ी भी अब मशीनों से होने लगी है। ऐसे में अब मजदूरों के लिए बहुत कुछ नहीं है। गांवों में लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

-सुंदर यादव

बोले जिम्मेदार

मनरेगा के तहत मजदूरों को काम दिया जाता है। इसमें एक बार रजिस्ट्रेशन होने के बाद काम मिलने की गारंटी होती है। कोई भी मजदूर इसमें रजिस्टे्रशन करा सकता है।

-सुभाष चंद्र मंडल, डीडीसी

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